Tuesday, July 28, 2009

राजस्थानी कला : इतिहास का पूरक साधन

इतिहास के साधनों में शिलालेख, पुरालेख और साहित्य के समानान्तर कला भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसके द्वारा हमें मानव की मानसिक प्रवृतियों का ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता वरन् निर्मितियों में उनका कौशल भी दिखलाई देता है। यह कौशल तत्कालीन मानव के विज्ञान तथा तकनीक के साथ-साथ समाज, धर्म, आर्थिक और राजनीतिक विषयों का तथ्यात्मक विवरण प्रदान करने में इतिहास का स्रोत बन जाता है। इसमें स्थापत्या, मूर्ति, चित्र, मुद्रा, वस्राभूषण, श्रृंगार-प्रसाधन, घरेलु उपकरण इत्यादि जैसे कई विषय समाहित है जो पुन: विभिन्न भागों में विभक्त किए जा सकते हैं।

राजस्थानी स्थापत्य कला

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राजस्थान में प्राचीन काल से ही हिन्दु, बौद्ध, जैन तथा मध्यकाल से मुस्लिम धर्म के अनुयायियों द्वारा मंदिर, स्तम्भ, मठ, मस्जिद, मकबरे, समाधियों और छतरियों का निर्माण किया जाता रहा है। इनमें कई भग्नावेश के रुप में तथा कुछ सही हालत में अभी भी विद्यमान है। इनमें कला की दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन देवालयों के भग्नावशेष हमें चित्तौड़ के उत्तर में नगरी नामक स्थान पर मिलते हैं। प्राप्त अवशेषों में वैष्णव, बौद्ध तथा जैन धर्म की तक्षण कला झलकती है। तीसरी सदी ईसा पूर्व से पांचवी शताब्दी तक स्थापत्य की विशेषताओं को बतलाने वाले उपकरणों में देवी-देवताओं, यक्ष-यक्षिणियों की कई मूर्तियां, बौद्ध, स्तूप, विशाल प्रस्तर खण्डों की चाहर दीवारी का एक बाड़ा, ३६ फुट और नीचे से १४ फुल चौड़ दीवर कहा जाने वाला "गरुड़ स्तम्भ' यहां भी देखा जा सकता है। १५६७ ई. में अकबर द्वारा चित्तौड़ आक्रमण के समय इस स्तम्भ का उपयोग सैनिक शिविर में प्रकाश करने के लिए किया गया था। गुप्तकाल के पश्चात् कालिका मन्दिर के रुप में विद्यमान चित्तौड़ का प्राचीन "सूर्य मन्दिर' इसी जिले में छोटी सादड़ी का भ्रमरमाता का मन्दिर कोटा में, बाड़ौली का शिव मन्दिर तथा इनमें लगी मूर्तियां तत्कालीन कलाकारों की तक्षण कला के बोध के साथ जन-जीवन की अभिक्रियाओं का संकेत भी प्रदान करती हैं। चित्तौड़ जिले में स्थित मेनाल, डूंगरपुर जिले में अमझेरा, उदयपुर में डबोक के देवालय अवशेषों की शिव, पार्वती, विष्णु, महावीर, भैरव तथा नर्तकियों का शिल्प इनके निर्माण काल के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का क्रमिक इतिहास बतलाता है।

सातवीं शताब्दी से राजस्थान की शिल्पकला में राजपूत प्रशासन का प्रभाव हमें शक्ति और भक्ति के विविध पक्षों द्वारा प्राप्त होता है। जयपुर जिले में स्थित आमानेरी का मन्दिर (हर्षमाता का मंदिर), जोधपुर में ओसिया का सच्चियां माता का मन्दिर, जोधपुर संभाग में किराडू का मंदिर, इत्यादि और भिन्न प्रांतों के प्राचीन मंदिर कला के विविध स्वरों की अभिव्यक्ति संलग्न राजस्थान के सांस्कृतिक इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डालने वाले स्थापत्य के नमूने हैं।

उल्लेखित युग में निर्मित चित्तौड़, कुम्भलगढ़, रणथंभोर, गागरोन, अचलगढ़, गढ़ बिरली (अजमेर का तारागढ़) जालोर, जोधपुर आदि के दुर्ग-स्थापत्य कला में राजपूत स्थापत्य शैली के दर्शन होते हैं। सरक्षा प्रेरित शिल्पकला इन दुर्गों की विशेषता कही जा सकती है जिसका प्रभाव इनमें स्थित मन्दिर शिल्प-मूर्ति लक्षण एवं भवन निर्माण में आसानी से परिलक्षित है। तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् स्थापत्य प्रतीक का अद्वितीय उदाहरण चित्तौड़ का "कीर्ति स्तम्भ' है, जिसमें उत्कीर्म मूर्तियां जहां हिन्दू धर्म का वृहत संग्रहालय कहा जा सकता है। वहां इसकी एक मंजिल पर खुदे फारसी-लेख से स्पष्ट होता है कि स्थापत्य में मुस्लिम लक्ष्ण का प्रभाव पड़ना शुरु होने लगा था।

सत्रहवीं शताब्दी के पश्चात् भी परम्परागत आधारों पर मन्दिर बनते रहे जिनमें मूर्ति शिल्प के अतिरिक्त भित्ति चित्रों की नई परम्परा ने प्रवेश किया जिसका अध्ययन राजस्थानी इतिहास के लिए सहयोगकर है।



मुद्रा कला

राजस्थान के प्राचीन प्रदेश मेवाड़ में मज्झमिका (मध्यमिका) नामधारी चित्तौड़ के पास स्थित नगरी से प्राप्त ताम्रमुद्रा इस क्षेत्र को शिविजनपद घोषित करती है। तत्पश्चात् छठी-सातवीं शताब्दी की स्वर्ण मुद्रा प्राप्त हुई। जनरल कनिंघम को आगरा में मेवाड़ के संस्थापक शासक गुहिल के सिक्के प्राप्त हुए तत्पश्चात ऐसे ही सिक्के औझाजी को भी मिले। इसके उर्ध्वपटल तथा अधोवट के चित्रण से मेवाड़ राजवंश के शैवधर्म के प्रति आस्था का पता चलता है। राणा कुम्भाकालीन (१४३३-१४६८ ई.) सिक्कों में ताम्र मुद्राएं तथा रजत मुद्रा का उल्लेख जनरल कनिंघम ने किया है। इन पर उत्कीर्ण वि.सं. १५१०, १५१२, १५२३ आदि तिथियों ""श्री कुभंलमेरु महाराणा श्री कुभंकर्णस्य'', ""श्री एकलिंगस्य प्रसादात'' और ""श्री'' के वाक्यों सहित भाले और डमरु का बिन्दु चिन्ह बना हुआ है। यह सिक्के वर्गाकृति के जिन्हें "टका' पुकारा जाता था। यह प्रबाव सल्तनत कालीन मुद्रा व्यवस्था को प्रकट करता है जो कि मेवाड़ में राणा सांगा तक प्रचलित रही थी। सांगा के पश्चात् शनै: शनै: मुगलकालीन मुद्रा की छाया हमें मेवाड़ और राजस्थान के तत्कालीन अन्यत्र राज्यों में दिखलाई देती है। सांगा कालीन (१५०९-१५२८ ई.) प्राप्त तीन मुद्राएं ताम्र तथा तीन पीतल की है। इनके उर्ध्वपटल पर नागरी अभिलेख तथा नागरी अंकों में तिथि तथा अधोपटल पर ""सुल्तान विन सुल्तान'' का अभिलेख उत्कीर्ण किया हुआ मिलता है। प्रतीक चिन्हों में स्वास्तिक, सूर्य और चन्द्र प्रदर्शित किये गए हैं। इस प्रकार सांगा के उत्तराधिकारियों राणा रत्नसिंह द्वितीय, राणा विक्रमादित्य, बनवीर आदि की मुद्राओं के संलग्न मुगल-मुद्राओं का प्रचलन भी मेवाड में रहा था जो टका, रुप्य आदि कहलाती थी।

परवर्ती काल में आलमशाही, मेहताशाही, चांदोडी, स्वरुपशाही, भूपालशाही, उदयपुरी, चित्तौड़ी, भीलवाड़ी त्रिशूलिया, फींतरा आदि कई मुद्राएं भिन्न-भिन्न समय में प्रचलित रहीं वहां सामन्तों की मुद्रा में भीण्डरीया पैसा एवं सलूम्बर का ठींगला व पदमशाही नामक ताम्बे का सिक्का जागीर क्षेत्र में चलता था। ब्रिटीश सरकार का "कलदार' भी व्यापार-वाणिज्य में प्रयुक्त किया जाता रहा था। जोधपुर अथवा मारवाड़ प्रदेश के अन्तर्गत प्राचीनकाल में "पंचमार्क' मुद्राओं का प्रचलन रहा था। ईसा की दूसरी शताब्दी में यहां बाहर से आए क्षत्रपों की मुद्रा "द्रम' का प्रचलन हुआ जो लगभग सम्पूर्ण दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान में आर्थिक आधार के साधन-रुप में प्रतिष्ठित हो गई। बांसवाड़ा जिले के सरवानियां गांव से १९११ ई. में प्राप्त वीर दामन की मुद्राएं इसका प्रमाण हैं। प्रतिहार तथा चौहान शासकों के सिक्कों के अलावा मारवाड़ में "फदका' या "फदिया' मुद्राओं का उल्लेख भी हमें प्राप्त होता है।

राजस्थान के अन्य प्राचीन राज्यों में जो सिक्के प्राप्त होते हैं वह सभी उत्तर मुगलकाल या उसके पश्चात् स्थानीय शासकों द्वारा अपने-अपने नाम से प्रचलित कराए हुए मिलते हैं। इनमें जयपुर अथवा ढुंढ़ाड़ प्रदेश में झाड़शाही रामशाही मुहर मुगल बादशाह के के नाम वाले सिक्को में मुम्मदशाही, प्रतापगढ़ के सलीमशाही बांसवाड़ा के लछमनशाही, बून्दी का हाली, कटारशाही, झालावाड़ का मदनशाही, जैसलमैर में अकेशाही व ताम्र मुद्रा - "डोडिया' अलवर का रावशाही आदि मुख्य कहे जा सकते हैं।

मुद्राओं को ढ़ालने वाली टकसालों तथा उनके ठप्पों का भी अध्ययन अपेक्षित है। इनसे तत्कालीन मुद्रा-विज्ञान पर वृहत प्रकाश डाला जा सकता है। मुद्राओं पर उल्लेखित विवरणों द्वारा हमें सत्ता के क्षेत्र विस्तार, शासकों के तिथिक्रम ही नहीं मिलते वरन् इनसे राजनीतिक व्यवहारों का अध्ययन भी किया जा सकता है।



मूर्ति कला

राजस्थान में काले, सफेद, भूरे तथा हल्के सलेटी, हरे, गुलाबी पत्थर से बनी मूर्तियों के अतिरिक्त पीतल या धातु की मूर्तियां भी प्राप्त होती हैं। गंगा नगर जिले के कालीबंगा तथा उदयपुर के निकट आहड़-सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी से बनाई हुई खिलौनाकृति की मूर्तियां भी मिलती हैं। किन्तु आदिकाल से शास्रोक्य मूर्ति कला की दृष्टि से ईसा पूर्व पहली से दूसरी शताब्दी के मध्य निर्मित जयपुर के लालसोट नाम स्थान पर ""बनजारे की छतरी'' नाम से प्रसिद्ध चार वेदिका स्तम्भ मूर्तियों का लक्षण द्रष्टत्य है। पदमक के धर्मचक्र, मृग, मत्स, आदि के अंकन मरहुत तथा अमरावती की कला के समानुरुप हैं। राजस्थान में गुप्त शासकों के प्रभावस्वरुप गुप्त शैली में निर्मित मूर्तियों, आभानेरी, कामवन तथा कोटा में कई स्थलों पर उपलब्ध हुई हैं।

गुप्तोतर काल के पश्चात् राजस्थान में सौराष्ट्र शैली, महागुर्जन शैली एवं महामास शैली का उदय एवं प्रभाव परिलक्षित होता है जिसमें महामास शैली केवल राजस्थान तक ही सीमित रही। इस शैली को मेवाड़ के गुहिल शासकों, जालौर व मण्डोर के प्रतिहार शासकों और शाकम्भरी (सांभर) के चौहान शासकों को संरक्षण प्रदान कर आठवीं से दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इसे विकसित किया।

१५वीं शताब्दी राजस्थान में मूर्तिकला के विकास का स्वर्णकाल था जिसका प्रतीक विजय स्तम्भ (चित्तौड़) की मूर्तियां है। सोलहवी शताब्दी का प्रतिमा शिल्प प्रदर्शन जगदीश मंदिर उदयपुर में देखा जा सकता है। यद्यपि इसके पश्चात् भी मूर्तियां बनी किंतु उस शिल्प वैचिञ्य कुछ भी नहीं है किंतु अठाहरवीं शताब्दी के बाद परम्परावादी शिल्प में पाश्चात्य शैली के लक्षण हमें दिखलाई देने लगते हैं। इसके फलस्वरुप मानव मूर्ति का शिल्प का प्रादूर्भाव राजस्थान में हुआ।





धातु मूर्ति कला

धातु मूर्ति कला को भी राजस्थान में प्रयाप्त प्रश्रय मिला। पूर्व मध्य, मध्य तथा उत्तरमध्य काल में जैन मूर्तियों का यहां बहुतायत में निर्माण हुआ। सिरोही जिले में वसूतगढ़ पिण्डवाड़ा नामक स्थान पर कई धातु प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जिसमें शारदा की मूर्ति शिल्प की दृष्टि से द्रस्टव्य है। भरतपुर, जैसलमेर, उदयपुर के जिले इस तरह के उदाहरण से परिपूर्ण है।

अठाहरवी शताब्दी से मूर्तिकला ने शनै: शनै: एक उद्योग का रुप लेना शुरु कर दिया था। अत: इनमें कलात्मक शैलियों के स्थान पर व्यवसायिकृत स्वरुप झलकने लगा। इसी काल में चित्रकला के प्रति लोगों का रुझान दिखलाई देता है।



चित्रकला

राजस्थान में यों तो अति प्राचीन काल से चित्रकला के प्रति लोगों में रुचि रही थी। मुकन्दरा की पहाड़ियों व अरावली पर्वत श्रेणियों में कुछ शैल चित्रों की खोज इसका प्रमाण है। कोटा के दक्षिण में चम्बल के किनारे, माधोपुर की चट्टानों से, आलनिया नदी से प्राप्त शैल चित्रों का जो ब्योरा मिलता है उससे लगता है कि यह चित्र बगैर किसी प्रशिक्षण के मानव द्वारा वातावरण प्रभावित, स्वाभाविक इच्छा से बनाए गए थे। इनमें मानव एवं जावनरों की आकृतियों का आधिक्य है। कुछ चित्र शिकार के कुछ यन्त्र-तन्त्र के रुप में ज्यामितिक आकार के लिए पूजा और टोना टोटका की दृष्टि से अंकित हैं।

कोटा के जलवाड़ा गांव के पास विलास नदी के कन्या दाह ताल से बैला, हाथी, घोड़ा सहित घुड़सवार एवं हाथी सवार के चित्र मिलें हैं। यह चित्र उस आदिम परम्परा को प्रकट करते हैं आज भी राजस्थान में ""मांडला'' नामक लोक कला के रुप में घर की दीवारों तथा आंगन में बने हुए देखे जा सकते हैं। इस प्रकार इनमें आदिम लोक कला के दर्शन सहित तत्कालीन मानव की आन्तरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति सहज प्राप्त होती है।

कालीबंगा और आहड़ की खुदाई से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों पर किया गया अलंकरण भी प्राचीनतम मानव की लोक कला का परिचय प्रदान करता है। ज्यामितिक आकारों में चौकोर, गोल, जालीदाल, घुमावदार, त्रिकोण तथा समानान्तर रेखाओं के अतिरिक्त काली व सफेद रेखाओं से फूल-पत्ती, पक्षी, खजूर, चौपड़ आदि का चित्रण बर्तनों पर पाया जाता है। उत्खनित-सभ्यता के पश्चात् मिट्टी पर किए जाने वाले लोक अलंकरण कुम्भकारों की कला में निरंतर प्राप्त होते रहते हैं किन्तु चित्रकला का चिन्ह ग्याहरवी शदी के पूर्व नहीं हुआ है।

सर्वप्रथम वि.सं. १११७/१०८० ई. के दो सचित्र ग्रंथ जैसलमेर के जैन भण्डार से प्राप्त होते हैं। औघनिर्युक्ति और दसवैकालिक सूत्रचूर्णी नामक यह हस्तलिखित ग्रन्थ जैन दर्शन से सम्बन्धित है। इसी प्रकार ताड़ एवं भोज पत्र के ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिए बनाये गए लकड़ी के पुस्तक आवरण पर की गई चित्रकारी भी हमें तत्कालीन काल के दृष्टान्त प्रदान करती है।

बारहवी शताब्दी तक निर्मित ऐसी कई चित्र पट्टिकाएं हमें राजस्थान के जैन भण्डारों में उपलब्ध हैं। इन पर जैन साधुओं, वनस्पति, पशु-पक्षी, आदि चित्रित हैं। अजमेर, पाली तथा आबू ऐसे चित्रकारों के मुख्य केन्द्र थे। तत्पशात् आहड़ एवं चित्तौड़ में भी इस प्रकार के सचित्र ग्रंथ बनने आरम्भ हुए। १२६०-१३१७ ई. में लिखा गया ""श्रावक प्रतिक्रमण सूत्रचूर्णि'' नामक ग्रन्थ मेवाड़ शैली (आहड़) का प्रथम उपलब्ध चिन्ह है, जिसके द्वारा राजस्थानी कला के विकास का अध्ययन कर सकते हैं।

ग्याहरवी से पन्द्रहवी शताब्दी तक के उपलब्ध सचित्र ग्रंथों में निशिथचूर्णि, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, नेमिनाथ चरित्र, कला सरित्सागर, कल्पसूत्र (१४८३/१४२६ ई.) कालक कथा, सुपासनाचरियम् (१४८५-१४२८ ई.) रसिकाष्टक (१४३५/१४९२ ई.) तथा गीत गोविन्द आदि हैं। १५वीं शदी तक मेवाड़ शैली की विशेषता में सवाचश्म्, गरुड़ नासिका, परवल की खड़ी फांक से नेत्र, घुमावदार व लम्बी उंगलियां, गुड्डिकार जनसमुदाय, चेहरों पर जकड़न, अलंकरण बाहुल्य, लाल-पीले रंग का अधिक प्रयोग कहे जा सकते हैं।

मेवाड़ के अनुरुप मारवाड़ में भी चित्रकला की परम्परा प्राचीन काल से पनपती रही थी। किंतु महाराणा मोकल से राणा सांगा (१४२१-१५२८ ई.) तक मेवाड़-मारवाड़ कला के राजनीतिक प्रभाव के फलस्वरुप साम्य दिखलाई होता है। राव मालदेव (१५३१-१५६२ ई.) ने पुन: मारवाड़ शैली को प्रश्य प्रदान कर चित्रकारों को इस ओर प्रेरित किया। इस शैली का उदाहरण १५९१ ई. में चित्रित ग्रन्थ उत्तराध्ययन सूत्र है। मारवाड़ शैली के भित्तिचित्रों मे जोधपुर के चोखेला महल को छतों के अन्दर बने चित्र दृष्टव्य हैं।

राजस्थान में मुगल प्रभाव के परिणाम स्वरुप सत्रहवीं शती से मुगल शैली और राजस्थान की परम्परागत राजपूत शैली के समन्वय ने कई प्रांतीय शेलियों को जन्म दिया, इनमें मेवाड़ और मारवाड़ के अतिरिक्त बूंदी, कोटा, जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, किशनगढ़ और नाथद्वारा शैली मुख्य है।

मुगल प्रभाव के फलत: चित्रों के विषय अन्त:पुर की रंगरेलियां, स्रियों के स्नान, होली के खेल, शिकार, बाग-बगीचे, घुड़सवारी, हाथी की सवारी आदि रहे। किन्तु इतिहास के पूरक स्रोत की दृष्चि से इनमें चित्रित समाज का अंकन एवं घटनाओं का चित्रण हमें सत्रहवीं से अठारहवी शताब्दी के अवलोकन की विस्तृत सामग्री प्रदान करता है। उदाहरणत: मारवाड़ शैली में उपलब्ध ""पंचतंत्र'' तथा ""शुकनासिक चरित्र'' में कुम्हार, धोबी, नाई, मजदूर, चिड़ीमार, लकड़हारा, भिश्ती, सुनार, सौदागर, पनिहारी, ग्वाला, माली, किसान आदि से सम्बन्धित जीवन-वृत का चित्रण मिलता है। किशनगढ़ शैली में राधा कृष्ण की प्रेमाभिव्यक्ति के चित्रण मिलते हैं। इस क्रम में बनीठनी का एकल चित्र प्रसिद्ध है। किशनगढ़ शैली में कद व चेहरा लम्बा नाक नुकीली बनाई जाती रही वही विस्तृत चित्रों में दरबारी जीवन की झांकियों का समावेश भी दिखलाई देता है।

मुगल शैली का अधिकतम प्रभाव हमें जयपुर तथा अलवर के चित्रों में मिलता है। बारामासा, राग माला, भागवत आदि के चित्र इसके उदाहरण हैं। १६७१ ई. से मेवाड़ में पुष्टि मार्ग से प्रभावित श्रीनाथ जी के धर्म स्थल नाथद्वारा की कलम का अलग महत्व है। यद्यपि यहां के चित्रों का विषय कृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित रहा है फिर भी जन-जीवन की अभिक्रियाओं का चित्रण भी हमें इनमें सहज दिख जाता है। १९वीं शताब्दी में ब्रिटिश प्रभाव के फलत: राजस्थान में पोट्रेट भी बनने शुरु हुए। यह पोट्रेट तत्कालीन रहन-सहन को अभिव्यक्त करने में इतिहास के अच्छे साधन हैं।

चित्रकला के अन्तर्गत भित्ति चित्रों का आधिक्य हमें अठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से दिखलाई देता है, किन्तु इसके पूर्व भी मन्दिरों और राज प्रासादों में ऐसे चित्रांकन की परम्परा विद्यमान थी। चित्तौड़ के प्राचीन महलों में ऐसे भित्ति चित्र उपलब्ध हैं जो सौलहवीं सदी में बनाए गए थे।

सत्रहवीं शताब्दी के चित्रणों में मोजमाबाद (जयपुर), उदयपुर के महलों तथा अम्बामाता के मंदिर, नाडोल के जैन मंदिन, आमेर (जयपुर) के निकट मावदूमशाह की कब्र के मुख्य गुम्बद के चित्र, जूनागढ़ (बीकानेर), मारोठ के मान मन्दिर गिने जा सकते हैं। अठाहरवीं शताब्दी के चित्रणों में कृष्ण विलास (उदयपुर) आमेर महल की भोजनशाला, गलता के महल, पुण्डरीक जी की हवेली (जयपुर) सूरजमल की छतरी (भरतपुर), झालिम सिंह की हवेली (कोटा) और मोती महल (नाथद्वारा) के भित्ति चित्र मुख्य हैं। यह चित्र आलागीला पद्धति या टेम्परा से बनाए गए थे। शेखावटी, जैसलमेर एवं बीकानेर की हवेलियों में इस प्रकार के भित्ति चित्र अध्ययनार्थ अभी भी देखे जा सकते हैं।

कपड़ो पर की जाने वाली कला में छपाई की चित्रकारी भी कला के इतिहास सहित इतिहास के अन्य अंगों पर प्रकाश डालने में समर्थ हो सकती है। यद्यपि वस्र रंगाई, छपाई, तथा कढ़ाई चित्रकला से प्रत्यक्ष सम्बन्धित नहीं हैं, किन्तु काल विशेष में अपनाई जाने वाली इस तकनीक, विद्या का अध्ययन कलागत तकनीकी इतिहास की उपादेय सामग्री बन सकती है। चांदी और सोने की जरी का काम किए वस्र शामियाने, हाथी, घोड़े तथा बैल की झूले आदि इस अध्ययन के साधन हैं।



धातु एवं काष्ठ कला

इसके अन्तर्गत तोप, बन्दूक, तलवार, म्यान, छुरी, कटारी, आदि अस्र-शस्र भी इतिहास के स्रोत हैं। इनकी बनावट इन पर की गई खुदाई की कला के साथ-साथ इन पर प्राप्त सन् एवं अभिलेख हमें राजनीतिक सूचनाएं प्रदान करते हैं। ऐसी ही तोप का उदाहरण हमें जोधपुर दुर्ग में देखने को मिला जबकि राजस्थान के संग्रहालयों में अभिलेख वाली कई तलवारें प्रदर्शनार्थ भी रखी हुई हैं। पालकी, काठियां, बैलगाड़ी, रथ, लकड़ी की टेबुल, कुर्सियां, कलमदान, सन्दूक आदि भी मनुष्य की अभिवृत्तियों का दिग्दर्शन कराने के साथ तत्कालीन कलाकारों के श्रम और दशाओं का ब्यौरा प्रस्तुत करने में हमारे लिए महत्वपूर्ण स्रोत सामग्री है।



लोककला

अन्तत: लोककला के अन्तर्गत बाद्य यंत्र, लोक संगीत और नाट्य का हवाला देना भी आवश्यक है। यह सभी सांस्कृतिक इतिहास की अमूल्य धरोहरें हैं जो इतिहास का अमूल्य अंग हैं। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक राजस्थान में लोगों का मनोरंजन का साधन लोक नाट्य व नृत्य रहे थे। रास-लीला जैसे नाट्यों के अतिरिक्त प्रदेश में ख्याल, रम्मत, रासधारी, नृत्य, भवाई, ढाला-मारु, तुर्रा-कलंगी या माच तथा आदिवासी गवरी या गौरी नृत्य नाट्य, घूमर, अग्नि नृत्य, कोटा का चकरी नृत्य, डीडवाणा पोकरण के तेराताली नृत्य, मारवाड़ की कच्ची घोड़ी का नृत्य, पाबूजी की फड़ तथा कठपुतली प्रदर्शन के नाम उल्लेखनीय हैं। पाबूजी की फड़ चित्रांकित पर्दे के सहारे प्रदर्शनात्मक विधि द्वारा गाया जाने वाला गेय-नाट्य है। लोक बादणें में नगाड़ा ढ़ोल-ढ़ोलक, मादल, रावण हत्था, पूंगी, बसली, सारंगी, तदूरा, तासा, थाली, झाँझ पत्तर तथा खड़ताल आदि हैं।

फारसी तवारिखे : राजस्थान इतिहास में योगदान

राजस्थान के इतिहास को जानने, राजस्थान के शिलालेखों, ऐतिहासिक काव्य ग्रंथों, कथा साहित्य आदि के ऐतिहासिक विवरणों के क्रम बद्ध करने सत्यापित करने अथवा तथ्यों को लिखने के लिए ऐतिहासिक साहित्य के रुप में फारसी तवारिखें एक महत्वपूर्ण और विश्वसनीय स्थान रखती हैं।

यह तवारिखें दो प्रकार की हैं :

(१) प्रथम - स्वामी की आज्ञा द्वारा लिखी गई
(२) द्वितीय - आत्म-प्रेरणा युक्त लिखी गई।

प्रथम प्रकार की सभी तवारिखें परोक्ष अथवा उपरोक्ष रुप में राजस्थान के इतिहास पर प्रकाश डालती हैं और द्वितीय प्रकार तवारिखें - क्षेत्रीय तवारिखे हैं।

अलबेरुनी का "तहकीक-ए-हिन्दू' नामक इतिहास १०-११वीं शताब्दी के भारत वर्ष की राजनीति का सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक दशाओं का विस्तृत वर्णन करता है। इस संदर्भ में यह ग्रन्थ गुजरात और मालवा के सोलंकी और परमार शासकों का हवाला प्रदान करता है। १०-११वीं शताब्दी का राजस्थान-राजनीतिक दृष्टि से दोनों राजवंशों के प्रभाव क्षेत्र में था अत: राजस्थान की सामाजिक, आर्थिक दशा को जानने हेतु अलबेरुनी का ग्रन्थ सहायक है। यह ग्रन्थ १०४३ ई. में पूर्ण किया गया था।

महमूद गजनवी और मोहम्मद गौरी के राजस्थान सम्बन्धित अन्य तवारिखों में अबू सईद बिन अब्दुल हई कृत "किताब जैनुल अखबार', अलउतबी की "तारीख-ए-यामीनी' राजपूत गजनवी संघर्ष पर प्रकाश डालती है। इसके पश्चात् मिनहाज-उ-सिराज की "तबकात-ए-नासिरी' भी उपयोगी है, चौहान-गौरी संघर्ष और अजमेर, रणथम्भौर, नागौर, जालोर और मेवातियों पर मुस्लिम अधिशासन अथवा सैनिक कार्यवाहियों हेतु इसका प्रयोग किया जाता रहा है। १२ शताब्दी से राजस्थान मुस्लिम सम्बन्धों और राजस्थान के विविध वर्णनों को उल्लेखित करने वाले फारसी-स्रोत अध्धयन की दृष्टि से तीन काल-क्रमों में वर्गीकृत किये जा सकते हैं :-

(१) सल्तनत कालीन स्रोत
(२) मुगल कालीन स्रोत
(३) परवर्ती स्रोत



(१) सल्तनत कालीन स्रोत

उल्लेखित ऐतिहासिक फारसी साहित्य के ग्रन्थों में सर्वप्रथम सदरउद्दीन हसन निजामी द्वारा लिखी फारसी तवारिख "ताज उल मासिर' का महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि इस तवारिख की भाषा बड़ी अलंकारिक है फिर भी यह भारतीय इतिहास के गौरी आक्रमण, कुतुबुद्दीन के राजस्थान से सम्बन्ध तथा सुल्तान इल्तुमिश की राजस्थान में की गई सैन्य कार्यवाहियों का हवाला प्रदान करती हैं।

अमीर खुसरों : पूर्व मध्यकालीन राजस्थान के इतिहास हेतु अमीर खुसरों द्वारा लिखित ऐतिहासिक मसनबीयां उल्लेखनीय है। यह कवि जहां फारसी का विद्वान था वहां हिन्दी का भी लेखक था। १२५२ ई. में पटियाली (उ.प्र.) नामक स्थान पर खुसरों का जन्म हुआ और १३२५ ई. में इसकी दिल्ली में मृत्यु हुई थी। ७३ वर्ष के जीवनकाल में वह सुल्तान बलबन से गयासुद्दीन तुगलक तक के इतिहास का स्वयं साक्षी रहा था। इस समय को राजस्थान से सम्बन्धित घटनाओं में खुसरों द्वारा उल्लेखित खलजी कालीन अभियान मुक्य है। "मिफताहुल फुतूह' नामक मसनवी (१२९१ ई.) में खुसरों ने सुल्तान जलालुद्दीन खलजी के राजस्थान अभियानों में झाईन और रणथंभोर की असफलताओं का वर्णन किया है। १३११ ई. में खुसरों द्वारा लिखी कृति "खजाइनुल फूतुह' (विजयों का कोष) में सुल्तान अलाउद्दीन खलजी की विजयों का वर्णन है। इस ग्रन्थ में राजस्थान के रणथंभोर, चित्तोड़, जालोर, सीवाना आदि पर आक्रमणों का हवाला दिया हुआ है। चित्तोड़ अभियान में वह सुल्तान के साथ था। इन अभियानों का वर्णन १३१६ ई. में लिखित अन्य खुसरों कृति "देवल-रानी खिज खाँ' और १३२० ई. में रचित "तुगलक नामा' में गयासुद्दीन तुगलक के द्वारा रणथंभोर का वर्णन हे। अत: खुसरों की यह कृतियां राजस्थान के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।





जियाउद्दीन बरनी

जियाउद्दीन बरनी का जन्म १२८५ ई. में बलवन के शासनकाल में हुआ और मृत्यु सुल्तान फिरोज तुगलक के काल १३५७ ई. में हुई थी। इस प्रकार बरनी भी गुलाम वंश, खलजी वंश तथा तुगलक वंश के सुल्तानों की कार्यवाहियों का अच्छा गवाह था। जियाउद्दीन बरनी ने फारसी में "तवारीख-ए-फिरोज शाही' और "तबकात-ए-नासीरी' (१२६० ई.) में लिखी, जो कि राजस्थान के इतिहास हेतु आधार स्रोत के रुप में अपना महत्व रखती हैं।

तुगलक कालीन एक अन्य इतिहासकार "एसामी' ने अपने ग्रंथ "फुतूहुर-सलातीन' अथवा शाहनामा हिन्दी में खलजी-सुल्तान एवं राजस्थान के मध्य राजनीतिक सम्बन्धों का विवरण दिया है। तैमूर काल तथा उसके पश्चात् सैयद वंश कालीन राजस्थान के इतिहास को बतलाने वाले फारसी संदर्भों के लिए "तुजुक-ए-तिमुरी' अथवा "मुलफुजत-ई-तिमुरी' और शरफुद्दीन अली याजदी का "जफरनामा' (१४२४-२५ ई. कृत) उल्लेखनीय है। लोदी कालीन राजस्थान हेतु १५८१ ई. में लिखा गया "वाकयात-ए-मुश्ताकी' नामक ग्रंथ शेख रिज्कुल्लाह मुश्ताकी द्वारा लिखी गई कहानियों का संग्रह होते हुए भी बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं।

अफगान-राजस्थान के समबन्धों को व्यक्त करने वाले फारसी ग्रंथों में अब्दुल्लाह कृत "तवारीख-ए-खानेजहां' जो कि "मखजन-ए-अफगानी' और जहांगीर के काल की "तवारीख-ए-दाऊदी' (१५७२-७६ ई.) तथा अहमद यादगार रचित "तवारीख-ए-शाही' अथवा "तवारीख-ए-सलातीन-ए-अफगान' मुख्य हैं।

शेरखाह की राजस्थान में की गई कार्यवाहियों को लेखा देने वाला ग्रंथ अब्बास खाँ सरवानी का "तावारिख-ए-शेरशाही' है। इस ग्रंथ की रचना १५८८ ई. के पश्चात् हुई थी। इसमें मेवाड़ के उदय सिंह, मारवाड़ के मालदेव आदि के शेरशाह से समबन्धों का विवरण प्राप्त होता है।





(२) मुगल कालीन स्रोत

१५६२ ई. के पश्चात् मुगल सम्राट बाबर का राणा सांगा से सम्पर्क (फरवरी १५२७ ई.) राजस्थान के खानवा मैदान में हुआ था। इसके पश्चात् उसके उत्तराधिकाराओं में हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजैब, बहादुरशाह, फर्रुखशीयर, मुहम्मदशाह आदि राजस्थान की राजनीति में हस्तक्षेप अथवा शासन करते रहे थे। मुगल कालीन स्रोत में जहीरुद्दीन बाबर द्वारा लिखा गया आत्मचरित्र "बाबरनामा' राजस्थान के राजनीतिक जीवन के साथ-साथ भौगोलिक वर्णन, सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों को जानने, उसके काल के महत्वपूर्ण चरित्रों, व्यक्तियों और जीवनियों को समझने के लिए महत्वपूर्ण ग्रंथ है। उसने अपने ग्रंथ को दैनन्दिनी और वार्षिकी के आधार पर तैयार किया था अत: तथ्य जानने के लिए यह ग्रंथ सल्तनत और मुगलकालीन लिखे गए सभी फारसी-संदर्भ ग्रंथों से अधिक स्पष्ट और तिथीवार है।

बाबरकाल की घटनाओं की सूचना देने वाले फारसी स्रोतों में "नफ़ायसूल मआसिर' नामक ग्रंथ अलाउद्दौला द्वारा १५६५-१५६६ ई. में प्रारम्भ हुआ तथा १५८९ ई. ९० ई. में समाप्त किया गया। यद्यपि यह कृति अकबर के काल में लिखी गई थी किन्तु उसने अपने कवित्व वर्णन में पूर्व की कृतियों का संदर्भ के रुप में प्रयोग किया अत: उसका वर्णन इस दृष्टि से वैज्ञानिक है।

हुमायूं और अकबर कालीन फारसी इतिहास ग्रंथकारों में बाबर की पुत्री और हुमायूं की बहिन गुलबदन लिखित "हुमायूंनामा' भी राजस्थानी इतिहास जानने का अच्छा साधन है।

अकबर के काल में लिखे गए महत्वपूर्ण फारसी स्रोतों में राजकुमार से सम्बन्धित इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डालने वाले ग्रंथों में दो मुख्य है :

(१) अबुल फजल कृत "अकबरनामा' तीन भागों में (अन्तिम भाग "आईन-ए-अकबरी' के नाम से प्रसिद्ध है)
(२) मुहम्मद कासिम हिन्दूशाह फरिश्ता कृत "तवारीख-ए-फरिश्ता'


प्रथम ग्रंथ अकबर के दरबारी इतिहासकार के रुप में तथा दूसरा प्रान्तीय इतिहासकार के रुप में बीजापुर में लिखा गया।

"अकबरनामा' के संदर्भ इतिहास के रुप में और महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि इसे लिखवाने के पूर्व अकबर जो स्रोत कराये, उनमें राजस्थानी चारण-भाटों और ख्यातों बहियों, शिलालेखों आदि की सूचनाएं भी सम्मिलित थी। इनमें से कई स्रोंत कालक्षय हो चुके हें अत: अबुल फजल के वर्णन राजस्थान के लिए भी उपयोगी हैं।

जहांगीर के काल में लिखी गई और तत्कालीक कालावलोकन हेतु स्वयं जहांगीर द्वारा लिखित आत्मचरित्र "तुजुक-ए-जहांगीरी' या "तवारीख-ए-सलीमशाही', "कारनामा-ए-जहांगीरी', "वाकेयात-ए-जहांगीरी', "इकबाल नामा', "जहांगीर नामा' आदि नामों से पुकारी जाने वाली कृति मुक्य है। इसमें जहांगीर के सिंहासन पर बैठने (१६०५ ई.) से १२वे वर्ष तक का इतिहास जहांगीर और उसके पश्चात् ७ वर्ष तक का हाल मुतमिद खाँ द्वारा इकबालनामा जहांगीर की आज्ञा से लिखा गया है। मुहम्मदशाह के काल में मुहम्मदहादी द्वारा पुन: सम्पादित कर बादशाह के पूर्ण शासन का हाल लिखा गया जो कि जहांगीर की जीवनी के रुप में विद्यमान है। ख्वाजा कामगार की "मसीर-ए-जहांगीरी' में सलीम (जहांगीर) तथा खुर्रम (शाहजहां) के मेवाड़ अभियान पर प्रकाश डालती हैं। जहांगीर के शासन काल में लिखी गई एक अन्य प्रान्तीय कृति "मीरात-ए-सिकंदरी' (१६११ ई.) में राणा सांगा और गुजरात के संबन्धों की व्याख्या प्राप्त होती है।

शाहजहां के काल में लिखी गई तवारीखी से काजविनी कृत "पादशाहनामा', अब्दुलहमीद लाहोरी कृत "पादशाहनामा', मुहम्मद वारीस कृत "पादशाहनामा', शाहजहां के शासन के १०, २० वर्ष तक शेष काल का हवाला है। तीनों इतिहासकार राजकीय सेवा में गटनाक्रमों को लिखने हेतु नियुक्त थे। अत: इनका वर्णन शाहजहां राजपूत सम्बन्धों के लिए ही नहीं अपितु इनमें उदृत आर्थिक-सामाजिक दशा हेतु भी उपयोगी है। इसी क्रम में १६५७-८८ई. में तैयार किया गया ग्रंथ इनायत खाँ का "शाहजहांनामा' सरल भाषा में लिका शाहजहां कालीन स्रोतों का पूरक है।

औरंगजेब काल में इतिहास लिखने पर मनाही थी, फिर भी कुछ, लेखक छिपेतौर पर घटनाक्रमों को लिखते रहे थे, उनमें खाफी खाँ का "मुन्तखब-उल-तुवाब' मुख्य है। प्रथम भाग में शाहजहां तक तथा दूसरे भाग में औरंगजेब से मुहम्मदशाह तक विभाजित मुन्तखब का दूसरा भाग लेखक की गवाही के रुप में अधिक उपयोगी है। मिर्जा मुहम्मद कासीम कृत "आलमगीरनामा' औरंगजैब के प्रारंभिक १० वर्ष का (१६५८-१६६८ ई.) इतिहास तथा प्रान्तीय इतिहासकार के रुप में ईश्वरदास नागर का "फुतूहात-इ-आलमगीरी' मूलत: राठौड़-मुगल सम्बन्धों के लिए महत्वपूर्ण स्रोत है। ईश्वरदास नागर जोधपुर में मुगल अधिकारी था अत: राजस्थान के वर्णन में उसका लेखन प्रत्यक्ष गवाह के रुप प्रयुक्त किया जा सकता है। इस काल की राजस्थान की राजनीति पर प्रकाश डालने वाले ग्रंथों में भीमसेन बुरहारानपुरी कृत "नुस्ख-इ-दिलकुश' १६७० से १७०७ ई. तक दक्षिणी वृतान्तों को स्पष्ट करता है। शाहनवाज खाँ लिखित संदर्भ ग्रंथ "मासीर-उल-उमरा' ३ भागों में बाबर से औरंगजैब काल के २२ वर्ष तक मुगल सामन्तों का परिचय है। राजपूत-मुगल सामंतों के चित्रण हेतु यह ग्रंथ राजस्थान के इतिहास का उपयोगी स्रोत है।

औरंगजेब के पश्चात् उनके उत्तराधिकारियों और राजस्थान के संबन्धों को व्यक्त करने वाली कृतियों में दानिशमन्द खाँ का "पादशाह नामा' अथवा "बहादुरशाह नामा' बहादुरशाह के प्रथम दो वर्षों का वर्णन करती है। इरादत खाँ की "तवारीख-ए-इरादतखान' औरंगजेब की मृत्यु और उत्तराधिकार युद्ध में राजपूतों के व्यवहार, मुहम्मद शफी वारीद के "मीरात-उल-वारदात' या तवारीख-ए-चगताई में फर्रुखशीयर के काल तक का इतिहास है। सवाई जयसिंह और मराठाओं के सम्बन्ध तथा फर्रुखशीयर - अजीत सिंह सम्बन्धों पर यह कृति अच्छा विवरण प्रदान करती है।



(३) परिवर्तिकालीन स्रोत

मराठों के अभ्युदय और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण के पश्चात् मुगल बादशाह और राजपूतों के सम्बन्ध को बतलाने वाले फारसी स्रोंतो में खेरुद्दीन इलाहबादी का "इबरतनामा' शाहआलम द्वितीय (१७५९-१८०६ ई.) मुगल मराठा राजपूत सम्बन्धो और "तवारीख-ई-मुज्जफरी' मुहम्मद अली खाँ अंसारी द्वारा लिखा गया मुगलकाल के प्रारम्भ से शाह आलम (आलमगीर द्वितीय) तक का इतिहास है।

"बालमुकन्दनामा' - बालमुकन्दकृत में शाहआलम का वर्णन मिलता है। हरचरनदास की "चहर गुलजार-ए-शुजाई' (१७८४ ई. में पर्ण) मराठों के राजस्थान का वर्णन करती है। "मुर्सलात-इ-अहमदशाह' में राजपूतों द्वारा अत्पाली से किए गए पत्र व्यवहारों का हाल है, वहां "तवारीख-ए-अहमदशाही' से बादशाह (१७४८-५६ ई.) और राजपूतों के सम्बन्धों का हाल ज्ञात होता है। "वाकये अजमेर वा रणथंभोर' में ६७८ से १६८० ई. के मध्य के स्थानीय हालों का विवरण प्राप्त होता है। कालीराम कायस्थ का "तवारीख-ए-राजस्थान' में तथा मौलवी मुहम्मद उबेदुल्लाह फरहती लिखित "तवारीख-तुहुफ-ए-राजस्थान' में राजस्थान के इतिहास पर लिखा गया है। अत: यह सभी स्रोत फारसी। उर्दू के राजस्थानी इतिहास को जानने में उपयोगी आधार हैं।

राजस्थानी जैन साहित्य

ख्यात साहित्य की परम्परा के जैसे ही, राजस्थान के इतिहास के लिए जैन साहित्य का भी विशेष महत्व है। यह साहित्य जैन मुनियों, आचार्यों तथा श्रावकों द्वारा लिखा गया मूलत: जैन धर्म के उपदेशों की विवेचना, तीथर्ंकरों की महत्ता, जैन मंदिरों के उत्सव, संघ यात्राओं के इत्यादि से सम्बन्धित है। किन्तु इससे कई ऐतिहासिक सूचनाओं का भी ज्ञान प्राप्त होता है। राजस्थान के प्रत्येक गांव और नगर में जैन श्रावकों का निवास है, अत: लगभग सभी स्थानों पर जैन मंदिर एवं उपासकों में जैन साधुओं का आवागमन रहता है। वर्षा के चार महिनों में साधु जन एक ही स्थान पर रहते हुए चतुर्मास व्यतीत करते हैं। जहां वे समय का सदुपयोग चिन्तन, मनन और प्रवचन में करते हैं। चिन्तन मनन के साथ-साथ उनमें साधु लेखन-पठन का कार्य भी करते हैं। ऐसा लेखन दो प्रकार को होता है-


(एक) प्राचीन जैन ॠषियों की प्रतिलिपि करना
(दो) निज अनुभव अन्य धार्मिक सामाजिक प्रक्रियाओं को आलेखाबद्ध करना।


इस प्रकार दोनों ही प्रकार के लेखन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से तत्कालीन परिस्थितियों का समावेश हो जाना स्वाभाविक रहता है। यद्यपि इसमें कई बार श्रुति-परम्परा के कारण "इतिहास-भ्रम' की सम्भावनाएं भी रहती है पर इतिहास-बोध की दृष्टि से इनकी तथ्यपरकता इन्हें प्रमाणिक-साधन के समकक्ष रख देती है। सम्वत् तिथि एवं बार की सूचनाओं के रुप में उपासकों में रचित साहित्य राजस्थान ही नहीं वरन् भारतीय इतिहास की कई अनुमानित ऐतिहासिक घटनाओं की गुत्थियों को खोलने में सक्षम है। जैन मुनियों के पंच महाव्रतों में झूठ नहीं बोलने का एक व्रत है अत: जो कुछ उन्होंने देखा, सुना और परम्परा से प्राप्त हुआ, उसे उसी रुप में लिखने का भी प्रयत्न किया। इस दृष्टि से मि बात नहीं लिखी जाने के प्रति उन्होंने पूरी सावधानी रखी। जैनाचार्य एवं मुनियों को वैसे भी किसी राजा को, अधिकारी को या कर्मचारी को प्रसन्न करने के लिए सच्ची घटनाओं को छिपाने और कल्पित बातों को जोड़ने की आवश्यकता नहीं थी, इसीलिए अन्य कवियों और लेखकों की अपेक्षा इनके ग्रन्थ अधिक प्रामाणिक कहे जा सकते हैं।

तीर्थाटन और स्थान भ्रमण करते हुए जैन यात्रियों द्वारा राज्य, प्रांत, नगर, गांव, राजा, सामन्त, मंत्री, जैन एवं जैनेतर धार्मिक त्यौहार-उत्सव, जाति गोत्र आदि कई बातों का समावेश उनकी स्मृति में उत्कीर्ण हो जाता था एवं लेखन में विकीर्ण। इसीलिए जिनालय संग्रहित साहित्य को ऐतिहासिक सूचनाओं में महत्वपूर्ण साधन कहना एक ऐतिहासिक सत्य है।

प्राप्त जैन साहित्य भाषा की दृष्टि से संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी के अतिरिक्त गुजराती एवं कन्नड़ भाषा में लिखा गया है।

संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश में लिखे गए चरित या चरियउ में तीर्थकरों की स्तुति, गुरु उपासना अथवा साहित्यिक-नायक पर उद्धत कोई संदेश मुख्य विषय होता है। पर इनमें इतिहास के लिए भी सामग्री मिल जाती है, जैसे श्री कल्कासूरि चरितम अथवा कल्काचार्य कथानक से ज्ञात होता है कि ५७ इस्वी पूर्व शक नामक आक्रमणकारी जाति ने पश्चिम मालवा में राजस्थान के भू-भाग होते हुए प्रवेश किया था।

इसी प्रकार मुनि जिन विजय द्वारा सम्पादित प्राचीन जैन ग्रन्थ प्रभावक चरित मालवा क्षेत्र के अन्तर्गत राजस्थान के भू-भाग की सूचना प्रदान करता है।

"आवश्यक सूत्र नियुक्ति' जो कि ईसा की प्रथम शताब्दी में लिखी गई थी, इसकी टीका जो ११४१ ई. में पुन: सृजन की गई, में तत्कालीन राजस्थान के राजनीतिक जीवन ही नहीं वरन् सामाजिक-आर्थिक जीवन के विविध पक्षों का अच्छा उल्लेख करती है। "विमल सूरि' के प्राकृत में लिखे गए ग्रन्थ "पदःमचरिय' से १२वीं शताब्दी राजस्थान मुख्यत: जैसलमेर क्षेत्र के बारे में ज्ञात होता है यद्यपि इसका मूल ईसा की तीसरी सदी है। ७वीं ईस्वी तक ऐसे ही कई सूचनापरक जैन ग्रंथ अभी भी पूर्णत: खोज के विषय हैं।

चित्तौड़ क्योंकि प्राचीनकाल से ही जैनाचार्यो में आवागमन का मुख्य केन्द्र रहा था अत: यहां के एक प्रमुख जैन विद्वान एलाचार्य की शिष्य परम्परा में मुनी वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, लोकसेन आदि द्वारा कई ग्रन्थ रचे गए थे। इनके लिखे ग्रंथों में मुख्यत: "जयधवला टीका', "गध कथामृतक' तथा उत्तर पुराण हैं। इनमें प्राचीन राष्ट्रकूट या राठौड़ वंश के शासकों का इतिहास मिलता है।

आचार्य हरिभद्र सूरि चित्तोड़ निवासी थे जिनका कार्यक्षेत्र भीनमाल रहा। इन्होंने "समराच्य कहा' एवं "धूर्तारन्यान' की रचना की थी। ९८७ ई. के लगभग लिखे इन ग्रन्थों में राजस्थान के जनजीवन के विविध पक्षों का वर्णन उपलब्ध होता है। "समराच्य कहा' को १२६७ ई. के लगभग पुन: प्रधुम्न सूरि द्वारा संक्षिप्त रुप में लिखा गया। इसमें पृथ्वीराज चौहान कालीन प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था का कथावस्तु के अन्तर्गत उल्लेख किया हुआ प्राप्त होता है।

७७८ ई. में जालोर में लिखी गई अन्य प्राकृत जैन रचना "कुवलय माला कहा' भी प्रतिहार शासक वत्सराज के शासन और समाज का वर्णन करती है। उद्योतन सूरि द्वारा लिखी इस कहा अर्थात कथा में राजस्थान की धार्मिक दशा पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। चन्द्रप्रभ सूरिकृत "प्रभावक चरित' तथा बप्पभट्टि प्रबन्ध में भी प्रतिहार शासकों के इतिहास पर टिप्पणियां उपलब्ध होती है। यह ग्रंथ नवीं शताब्दी में लिखे गए थे। परम्परा कालीन राजस्थान पर प्रकाश डालने वाले ग्रन्थों में जिनप्रभ सूरि द्वारा प्रणित "तीर्थकल्प' या विविध तीर्थ कल्प, मुनि चन्द्र का "अमर अरित' (११४८ ई.) के नाम लिए जा सकते हैं।

१२वीं शताब्दी के बधावणा-गीत से जैन साहित्य में प्रबन्ध-काव्य, फागु, चोपाई, उपलब्ध होने लगते हैं। विषय की दृष्टि से फागु में वसन्त ॠतु का स्वागत पूजा आदि का चित्रण, बधावणा-गीत में स्वागत के गीत उल्लेखित रहते हैं। इन स्रोतों में जैन इतिहास के साथ-साथ सांस्कृतिक इतिहास को जानने के लिए अच्छ विवरण प्राप्त होते हैं।

इसी सदी की जैन रास रचनाओं में १२३२ ई. में लिखा गया पाल्हण कृत नेमि जिणद रासो या आबू रास ऐतिहासिक सामग्री के लिए उपयोगी है। इस रासों में आबू में विमल मंत्री द्वारा बनवाए गए ॠषभदेव के मंदिर सहित सोलंकी नरेश लूण प्रसाद के मंत्री वास्तुपाल एवं तेजपाल द्वारा विभिन्न मंदिरों के निर्माण, जिर्णोद्धार एवं प्रतिमा-प्रतिष्ठा का वर्णन किया गया है।

१४वीं शताब्दी में महावीर रास (वि.सं. १३३९), जिन चद्र सूरि वर्णना रास आदि मुख्य है। इन रासों में दिल्ली सुल्तान कुतुबद्दीन का वर्णन आता है।

१५वीं शताब्दी में समयप्रभ गणि द्वारा लिखा गया "श्री जिनभद्र सूरि गुरुराज पट्टामभिषेक रास' में जैन समाज की धार्मिक प्रक्रियाओं के वर्णन में मेवाड़ के शासक राणा लाखा (१३८२ ई. से १४२१ ई.) के शासन पर भी प्रकाश डालता है।

वि.सं. १४४५ अर्थात् १३८८ ई. में चांद कवि ने भट्टारक देव सुन्दर जी रास एवं १५वीं शताब्दी में संग्रहित जिनवर्द्धन सूरि रास में आचार्य परम्परा के साथ ही राजस्थान के कुछ नगरों का वर्णन प्राप्त होता है।

रासों साहित्य के अतिरिक्त काव्य प्रबन्ध, चोपाई, विवाहलो आदि साहित्य विद्या के अन्तर्गत लिखी हुई ऐतिहासिक साहित्य कृतियों में चौहान के इतिहास हेतु १५वीं शताब्दी (१४०३ ई.) का ग्रंथ हमीर महाकाव्य मुख्य है। यह काव्य नयन चन्द्र सूरि द्वारा रण थम्भोर के चौहान शासकों के बारे में लिखा गया था।

वि.सं. १७४२/१७८५ ई. में लिखी गई "भीम चोपाई' की रचना कीर्तिसागर सूरि के एक शिष्य ने की थी। दक्षिणी राजस्थान की रियासत डूंगरपुर के शासक जसवन्त सिंह की रानी, डूंगरपुर के गांव जो चोपाई के अनुसार ३५०० थे, का उल्लेख, आसपुर के जागीरदार का उल्लेख, धुलेव अर्थात ॠषभदेव की यात्रा का वर्णन आदि विषय इस कृति में सम्मिलित हैं। इस प्रकार यह चोपाइ इतिहास के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है। जैन-साहित्य में आचार्यादि द्वारा रचे गये गीतों का भी सूचना परक महत्व है, एक ओर गीत जहां प्राचीन घटनाओं की ऐतिहासिक जानकारी के बहुत बड़े साधन है, वहां दूसरी ओर तात्कालिक परिस्थितियों पर लोक हृदय की समीक्षा का विवरण भी इन गीतों में मिल जाता है।

इस प्रकार निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि जैन साहित्य विवरणात्मक धार्मिक साहित्य की श्रेणी में आते हुए भी ऐतिहासिक सूचनाओं के लिए अच्छे साधन हैं।

पुरालेखा स्रोत

वर्तमान काल में पूर्व लिखे अथवा लिखवाये गये राजकीय, अर्द्ध राजकीय अथवा लोक लिखित साधन पुरालेख सामग्री के अन्तर्गत आते हैं।

पुरालेखा का वर्गीकरण : पुरालेखा सामग्री, संस्थागत अवस्थापन की दृष्टि से पुरातत्व रिकार्ड, प्राच्च विद्या रिकार्ड, तथा अभिलेख रिकार्ड में वर्गीकृत हैं।

सामग्री के अनुसार : शिलालेख और ताम्रपत्र पुरातत्वालय में संग्रहित किये जाते हैं।

प्राच्च विद्या संस्थानों में प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ, ताड़-पत्र और चर्म-पणाç के लेख, कलम-चित्र, नक्शे आदि संग्रह किये जाते हैं।

वहां अभिलेखागारों में राज्य पुरालेखा सामग्री, अन्य संस्थागत पुरालेखा सामग्री तथा लोक लिखित पुरालेखा सामग्री संकलित की जाती है।

राजस्थान में पुरालेखा स्रोत का विशाल संग्रह राज्य अभिलेखागार बीकानेर और उसके अधीन विभिन्न वृत अथवा जिला अभिलेखागारों में सुरक्षित है।

सम्पूर्ण अभिलेख सामग्री को राजकीय संग्रह तथा संस्थागत या निजी सामग्री को व्यक्तिगत संग्रह के रुप में विभाजित करते हुए फारसी, उर्दू, राजस्थानी और अंग्रेजी भाषा लिखित पुरालेखा साधन में उपवर्गीकृत किया जा सकता है -

फारसी/उर्दू भाषा लिखित पुरालेखा सामग्री जिसमें फरमान मूसूर, रुक्का, निशान, अर्जदाश्त, हस्बुलहुक्म, रम्ज, अहकाम, सनद, इन्शा, रुकाइयत, वकील रिपोर्ट और अखबारात प्राप्त होते हैं।

राजस्थानी/हिन्दी भाषा में पट्टे-परवानें, बहियां, खरीते, खतत्, अर्जियां, हकीकत, याददाश्त, रोजनामचे, गांवों के नक्शे, हाले-हवाले, चिट्ठिया, पानडी अखबार बाकीबात डायरी आदि मुख्य हैं।

अंग्रेजी भाषा में लिखी अथवा छपी गई पुरालेखा में राजपूताना एजेन्सी रिकॉर्ड, रिकॉर्डस् आॅफ फॉरेन एण्ड पोलीटिकल डिपार्टमेन्ट, ट्यूर रिपोर्ट मेमाईस तथा पत्रादि संकलन के साथ-साथ मेवाड़ और मारवाड़ प्रेसींज के रुप में संकलित सामग्री उपलब्ध है।

उपर्युक्त सामग्री क्षेत्र अथवा प्राचीन रजवाड़ों के सम्बन्धानुसार निम्न रुप में भी जानी जाती है -

जोधपुर रिकॉर्ड, बीकानेर रिकॉर्ड अथवा मारवाड़ रिकॉर्डस्

जयपुर रिकॉर्ड

कोटा रिकॉर्ड अथवा हाड़ौती रिकॉर्डस

उदयपुर रिकॉर्ड अथवा मेवाड़ रिकॉर्डस





पुरालेखा संग्रह का काल

भारत में पुरालेख संग्रह का काल वस्तुत: मुस्लिम शासकों की देन है। केन्द्रीय शासन का प्रान्तों और जिलों से तथा जिला इकाईयों का प्रांतीय प्रशासन और केन्द्र से पत्र व्यवहार, प्रशासनिक रिकॉर्ड, अभिदानों का वर्णन आदि हमें १३वीं शताब्दी से मिलने लगते हैं, किन्तु व्यवस्थित रुप में पुरालेखा सामग्री मुगलकाल और उसके पश्चात प्राप्त होती है। ब्रिटिश काल तो प्रशासनिक कार्यालयों पर आधारित था। अत: इस काल का रिकॉर्ड प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। राजस्थान में मुगल शासकों के प्रभाव तथा उनसे प्रशासनिक सम्बन्धों के कारण १६वीं शताब्दी के पश्चात् विभिन्न राज्यों में राजकीय पत्रों और कार्यवाहियों को सुरक्षित रखने का कार्य प्रारम्भ हुआ। मालदेव, मारवाड़ राज्य का प्रथम प्रशासक था, सम्भवत: जिसने मुगल बादशाह हुमायुं के पुस्तकलाध्यक्ष मुल्ला सुर्ख को रिका⠤?्ड संग्रह अथवा पुस्तक संग्रह हेतु अपने राज्य में नियुक्त किया था। १५६२ ईं. से आमेर के राजघराने और १५१० ई. तक राजस्थान के अधिकांश शासकों ने मुगल शासक अकबर के समक्ष समपंण कर दिया था। उसके पश्चात वे मुगल प्रशासन में मनसबदार, जागीरदार आदि बनाये गये। इस प्रकार राजस्थान के राजघरानों में उनके और मुगल शासन के मध्य प्रशासनिक कार्यवाहियों का नियमित रिकॉर्ड रखा जाने लगा। ऐसे ही राज्यों और उनके जागीरदारों के मध्य भी रिकॉर्ड जमा हुआ। यह रिकॉर्ड यद्यपि १८-१९वीं शताब्दी में मराठा अतिक्रमणों, पिंडारियी की लूट-खसोट में नष्ट भी हुआ, किन्तु १९वीं शताब्दी के उतरार्द्ध से रियासतों के राजस्थान राज्य में विलय होने तक का रिकॉर्ड प्रचुर मात्रा में मिलता है। इसे रियासतों द्वारा राजस्थान सरकार को राज्य अभिलेखागार हेतु समर्पित कर दिया गया, फिर भी जागीरों के रिकॉर्ड तथा अन्य लोकोपयोगी पुरालेखा सामग्री भूतपूर्व राजाओं के पास अभी भी पड़ी हुई है।





संग्रह - सामग्री

१५८५ ई. से १७९९ ई. के मध्य दिल्ली बादशाहों द्वारा लिके गये १४० फरमान, १८ मन्सूर तथा १३२ निशान जयपुर रिकॉर्ड में सुरक्षित थे। ३ निशान, ३७ फरमान जोधपुर रिकॉर्ड में तथा १ फरमान, ८ निशान सिरोही रिकॉर्ड में सुरक्षित थे। यह सामग्री अब राजस्थान राज्य अभिलेखागार बीकानेर में संरक्षित की हुई है। फारसी/उर्दू लिखित पुरालेखा सामग्री निम्नलिखित है :



फरमान और मन्सूर

बादशाह (शासक) द्वारा अपने सामन्तों, शहजादों, शासकों या प्रजा के स्वयं अथवा अन्य से लिखवाकर भेजा जाता था। इन पत्रों पर तुगरा या राजा का पंजा (हथेली का चिन्ह) लगा रहता था।



निशान

निशान नामक पत्र शहजादी या बेगमों द्वारा बादशाह के अतिरिक्त अन्य से लिखे गये पत्र कहलाते थे। जहाँगीर के शासनकाल में नूरजहां द्वारा भेजे गए निशानों पर जहाँगीर का नाम होता था, किन्तु उस पर नूरजहां की मुद्रा अंकित होती थी। इसको बेगम की मोहर कहा जाता था।



अर्जदाश्त

यह प्रजा द्वारा शासकों या शहजादों द्वारा बादशाह को लिखे जाने वाले पत्र थे। यदि ऐसी अर्जदाश्तों में विजय के संदेश प्रेषित होते तो इन्हें फतेहनामा कहा जाता था।



हस्बुलहुक्म

बादशाह की आज्ञा से बादशाही आज्ञा की सूचना देने के लिए मंत्री (वजीर) अपनी ओर से लिखता था।



रम्ज और अहकाम

बादशाहों द्वारा अपने सचिव को लिखवाई गयी कुछ टिप्पणियां विशेष कहलाते थे, जिनके आधार पर सचिव पूरा पत्र तैयार करता था।



सनद

पत्र नियुक्ति अथवा अधिकार हेतु प्रदान किया जाता था।



परवाना

अपने से छोटे अधिकारी को लिखा गया प्रशासनिक पत्र था।



रुक्का

निजी पत्र की संज्ञा थी, परवर्ती काल में राजा की ओर से प्राप्त पत्र को खास रुक्का कहा जाने लगा था।



दस्तक

के आधार पर लोग सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ला-लेजा सकते थे, दरबार अथवा शिविर प्रवेश के लिए भी दस्तक एक प्रकार से आधुनिक "परमिट' या "पास' था।



वकील रिपोर्ट

प्रत्येक राज्यों से बादशाही दरबार में वकील नियुक्त होते थे, यह अपने शासकों के हितों की रक्षा तथा सूचना भेजते थे। इसके द्वारा लिखी सूचनाएं वकील रिपोर्ट कहलाती है।



अखबारात

इसी प्रकार राज्य और दरबार की कार्यवाहियों की प्रेसिडिस को अखबारात कहा जाता था।





राजस्थानी भाषा लिखित पुरालेख सामग्री

राजस्थानी भाषा लिखित पुरालेख सामग्री में महाजनी, मोड़ी हाडौती, मेवाड़ी आदि लिपि में लिखित राजस्थानी भाषा के परवाने खरीते, अर्जियां, चिट्ठियां, पानड़ी ऐसे फुटकर पत्र है, जिनमें राजस्थान के शासकों, अधिकारियों, ग्राम कर्मचारियों आदि का पारस्परिक व्यवहार स्पष्ट होता है। इस व्यवहारगत अध्ययन से इतिहास विषयक सामग्री भी प्राप्त होती है।

राजस्थानी भाषा में लिखित अन्य प्रमुक इतिहास स्रोत विभिन्न राजपूत राज्यों में लिखी गई बहियां हैं, इन बहियों को लिखने की प्रथा कबसे आरंभ हुई इसका सही समय बतलाना कठिन है, किंतु सबसे प्राचीन बही जो प्राप्त होती है वह राणा राजसिंह (१६५२-१६८० ई.) के समय की है, इसके पश्चात् दूसरी प्राचीन महत्वपूर्ण बही ""जोधपुर हुकुमत री बही'' है।

प्रथम बही राणा राजसिंह के काल में मेवाड़ राज्य के परगनों की स्थिति। उनकी वार्षिक आमदनी तथा अन्य प्रकार के हिसाब-किताब की है, दूसरी बही मुगल बादशाह शाहजहां की बीमारी से ओरंगजेब की मृत्यु तक महाराजा जसवंतसिह के संदर्भ में कई राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थितियों का उल्लेख करती है। इस प्रकार १७वीं शताब्दी के राजस्थान को जानने में दोनों बहियां अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।

पट्टा, पट्टा का अर्थ होता है "घृति' जो प्रदत्त की हुई हो और ऐसी प्रदत्त जागीर, जमीन, खेत, दृव्य, रुपया-पैसा अथवा राज्य इच्छानुसार भवन किराया, राज्य चुंगी दाण और लागत का अंश आदि होती थी। यह प्रदत्तियां पत्राधिकार अथवा ताम्रपत्र द्वारा प्रदान की जाती थी। इनकी प्रतिलिपियां पट्टा बहियों में अंकित होती थी। इस तरह पट्टा और पट्टा बहियों से राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों पर विस्तृत प्रकाश पड़ता है।

बहियों का विषय विभाजन का कार्य वैज्ञानिक रुप से पूर्ण नही हो पाया है, फिर भी शोधार्थियों द्वारा प्रयुक्त तथा निजी या राज्य अभिलेखागार में रखी गई बहियों के वर्गीकरण के आधार पर बहियों को निम्नलिखित प्रकार से प्रस्तुत कर सकते हैं-

कोटा राज्य के रिकॉर्ड

बीकानेर राज्य के रिकॉर्ड

जयपुर राज्य के रिकॉर्ड

जोधपुर के दस्री रिकॉर्ड

अन्य

कोटा राज्य के रिकॉर्ड

यह रिकॉर्ड १७वीं शताब्दी से २०वीं शताब्दी तक की राजकीय गतिविधियों का विवरण प्रदान करती हैं। इनमें मेहमानी बही वि.सं. १८४१-४४, मिजलिस खर्च बही वि.सं. १७३०, मामलिक खर्च इत्यादि बहियां, कपड़ो की किस्म, उनके मूल्य, कोटा के दरवाजों के निर्माण तथा मरम्मत और महलों व बागों के रख-रखाव निर्माण का हिसाब बतलाती है। इसके अतिरिक्त कोटा के शासकों का मुगल और मराठाओं से राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक सम्बन्धों का विस्तृत वर्णन भी उपलब्ध होता है।

बीकानेर राज्य के रिकॉर्ड

बीकानेर राज्य के रिकॉर्ड "पटाका बहियां' वि.सं. १६२४ से १८०० तक राज्य के राज का हिसाब बतलाती है। इसीक्रम में आर्थिक विवरण प्रस्तुत करने वाली बहियों में पट्टा बही, रोकड़ बही, ॠण बही, हॉसल बही, ब्याज बही, कमठाणा बही आदि मुख्य है। इन बहियों से राज्य की आर्थिक स्थिति के साथ-साथ मुद्रा-मूल्याकंन, कृषि की दशा, प्रजा की दशा, मजदूरी, बाजार मूल्य, जातियों का सामाजिक और आर्थिक स्तर आदि कई विषयों का ज्ञान होता है। ग्राम व्यवस्था, किसानों की स्थिति, आवागमन के साधन और किराया आदि पर प्रकाश डालने वाली बहियों में कागदो की बही, जैतपुर बही, व राजपूत जागीरदारी, शासकों तथा मुस्लिम शासकों से विवाह आदि सामाजिक संस्कारों का उल्लेख करने वाली "ब्याव बही' सामाजिक इतिहास के संदर्भ में अत्यन्त उपयोगी है।

जयपुर राज्य के रिकॉर्ड

जयपुर रिकॉर्ड में सीहा हजूर नामक स्रोत एक प्रकार से दैनिक हिसाब के आमद-खर्च को बतलाने वाली डायरियां हैं। यह खुले पत्रों में लिखी वार्षिक बण्डलों के रुप में बंधी हुई है। वि.सं. १७३५ से वि.सं. २००६ तक इनमें राजसी वस्राभूषणों, त्यौहार पवाç आदि का वर्णन है, इसी प्रकार दैनिक कार्यों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने वाली बहियों में ताजी रिकॉर्ड बहियां मुख्य हैं। यह ढूंढाड़ी लिपि में लिखी हुई है। १८वीं और १९वीं शताब्दी के इतिहास को प्रस्तुत करने में सहायक है। पोतदार रोजनामचा, पीढा रोजनामचा जयपुर शहर के नियोजन तथा लोगबाग पर प्रकाश डालते हैं। ३२ खण्डों में वेष्टित राजलोक का विस्तृत आर्थिक रिकॉर्ड "दस्तूर कोमवार' नाम से जाना जाता है। यह रिकॉर्ड तोजी रिकॉर्ड पर आधारित है। इनसे जातियों, व्यवसायों, विशिष्ट सुविधाओं आदि का ज्ञान भी प्राप्त होता है।

"दस्तूर उल-अमल' से भी सामाजिक स्थितियों पर प्रकाश पड़ता है, वहीं उनसे भू-राज के मूल्य लाग-बाग की जातिगत वसूली आदि कृषि और पंचायत व्यवस्थाओं की जानकारी भी मिलती है।

"कपड़द्वारा' पत्रों से भी सामाजिक धार्मिक परिस्थितियों के साथ राजनीतिक-आर्थिक व्यवहारों का दिग्दर्शन होता है। न्याय सभा अथवा सिहा अदालती पत्रों से जयपुर राज्य की न्याय व्यवस्था, अपराध, दण्ड तथा सुधारों के प्रांत राज्य की न्याय व्यवस्था की कार्यवाहियों का अध्ययन किया जा सकता है। निरख बाजार रिकॉर्ड (१७६०-१८१५ ई.) कस्बों, परगनों का बाजार भाव मालूम करने के लिए उपयोगी है।

जोधपुर के दस्री रिकॉर्ड

जोधपुर के दस्री रिकॉर्ड में ओहदा बही में अधिकारियों के अधिकार वृद्धि करने अथवा कम करने, शिकायतों, ईनाम आदि आज्ञाओं का उल्लेख है।

"पट्टा बही' में राजस्थान के सभी राजपूत राज्यों के अनुरुप भूमि पट्टों की मूल प्रतियां विद्यमान हैं। इन बहियों से राजपूत शासकों की धार्मिक वृत्ति, सहिष्णु नीति और उदार व्यवहार का पता चलता है।

"हथ बही' में शासकों के निजी संस्मरणों, गुप्त मंत्रणाओं और धार्मिक कार्यों का उल्लेख है। इन बहियों में सामाजिक-आर्थिक इतिहास के साथ-साथ सांस्कृतिक इतिहास की सामग्री संग्रहित है, उदाहरणार्थ वि.सं. १८३७ की एक बही में गंगा शुरु द्वारा राज परिवार हेतु गंगाजल की कावड़ पहुंचाने तथा उसके लाने की मजदूरी के रुप में ३० रुपया व्यय किया गया था इत्यादि।

"हकीकत बही' से राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक विषयों का दैनिक तिथिवार वर्णन प्राप्त होता है। राज्य के परगने तथा उनकी स्थिति, अधिकारियों की प्रचलित पदवी, उद्बोधन, पुलिस, डाक और यातायात प्रबन्ध, आयात-निर्यात होने वाली वस्तुएं इत्यादि कई विषय इसमें समाहित हैं। स्वतन्त्रता का योगदान, जागीरदारी और शासकों की मनोवृत्तियां अंग्रेजों से संबंध आदि पर भी यह बहियां तिथि युक्त ब्यौरे प्रदान करती हैं।

अन्य

इन बहियों के अतिरिक्त हकीकत खतूणियां खजाना बही, खजाना चौपन्या, पट्टा खतूणी, और जालौर रिकॉर्ड की छेरा की बही मारवाड़ के इतिहास हेतु अच्छे अभिलेख साधन है।

अंग्रेजी भाषा में लिखी अथवा छपी हुई सामग्री राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली में संकलित है। यह सामग्री तीन भागों में विभाजित है -

रिकॉर्डस् आॅफ द फॉरेन एण्ड पोलीटिकल डिपार्टमेंट

राजपूताना एजेंसी रिकॉर्डस्

विविध श्रृंखलाबद्ध रिकॉर्डस्



रिकॉर्डस् आॅफ द फॉरेन एण्ड पोलीटिकल डिपार्टमेंट

इन रिकॉर्डस् में दफ्तरी पत्र व्यवहार है। गवर्नर जनरल तथा उसकी कोंसिल के सदस्यों द्वारा प्रस्तावित प्रस्ताव, स्मरण पत्र, मांग पत्र आदि का लेखा और गवर्नर जनरल, गवर्नर जनरल के एजेन्टों तथा विभिन्न रजवाड़ों में नियुक्त पोलीटिकल ऐजेन्टों के प्रशासनिक, अर्द्ध प्रशासनिक इत्यादि पारस्परिक पत्र-व्यवहारों का संकलन इस श्रेणी में रखा हुआ है।

राजपूताना एजेंसी रिकॉर्डस्

रिकॉर्ड में राजा-महाराजाओं और पोलीटिकल एजेन्टों के मध्य की प्रशासनिक कार्यवाहियों, पोलिटिकल एजेन्टों का ए.जी.जी. और गवर्नर जनरल के मध्य राजपूताना सम्बन्धी सामाजिक, आर्थिक सुधारों के प्रति की गई कार्यवाहियों राजनीतिक परामशों के साथ-साथ एजेन्टों की डायरियां आदि विषयों की संकलित किया हुआ है।

यह रिकॉर्डस जहां राजस्थान के १८वीं से २०वीं शताब्दी तक राजनीतिक स्थिति का ब्यौरा प्रदान करते हैं, वहीं दरबारी आचरण, जागीरदारों के पारस्परिक मतभेद, सामाजिक कुरीतियों एवं आर्थिक व्यवस्थाओं को भी प्रस्तुत करते हैं।

विविध श्रृंखलाबद्ध रिकॉर्डस्

रिकॉर्ड विविध विषयों के वे संकलित पत्र हैं जो यात्रा विवरण, याददाश्तों पुरस्कार सम्मान आदि का हवाला देते हैं।



राजस्थान के इतिहास के स्रोत

राजस्थानी ख्यात-साहित्य

राजस्थानी भाषा में लिखा हुआ साहित्य राजस्थान के इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत है। प्राचीन राजस्थानी साहित्य का प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रुप में इतिहास से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। यह साहित्य संस्कृत प्राकृत, पाली, अपभ्रंश, डिंगल, पींगल भाषा अथवा राजस्थान की विभिन्न बोलियों में लिखा हुआ मिलता है। साहित्य, जैन साहित्य, संत साहित्य, लोक साहित्य और फुटकर-साहित्य एवं ब्राह्मण साहित्य, चारण साहित्य में लेखकीय प्रवृतियों को वर्गीकृत किया है।

किन्तु इतिहास की दृष्टि से डॉ. रघुवीर सिंह ने साहित्य को चार भागों में वर्गीकृत किया है -

ख्यात, वंशावलियों तथा इसी प्रकार का साहित्य।

गद्य में लिखी हुई जीवन कथायें; जो ऐतिहासिक महत्व की हैं।

संस्कृत, डिंगल तथा पींगल रचित पद्यात्मक ग्रन्था जिनमें किसी शासक विशेष या वंश विशेष का विवरण है।

अन्य रचनाएं जो अप्रत्यक्ष राजस्थान के इतिहास, सभ्यता एवं संस्कृति पर प्रकाश डालती है।

राजस्थानी भाषा में लिखा हुआ यह साहित्य पुनश्च: वंशावलियों, पीढियावली, पट्टावली, विगत वचनिका, दरावत, गतश्त्यात आदि के अंतर्गत विभाजित है।

वंशावलियों में विभिन्न वंशों के व्यक्तियों की सूचियां प्राप्त होती है। इन सूचियों में वंश के आदि पुरुष तक पीढ़ीवार वर्णन भी प्राप्त होता है। वंशावलियां और पीढियावलियां अधिकतर "भाटीं' के द्वारा लिखी हुई हैं। प्रद्वेस राजवंश तथा सामन्त परिवार इस (भाट) जाति के व्यक्ति का यजमान होता था।

बड़वा-भाटी का राज्य में सम्मान होता था एवं शासकों द्वारा इन्हें "राव' आदि के विरुद्ध दिये हुए थे। मेवाड़ तथा सारवाड़ के संदर्भ में इसके उदाहरण प्राप्त होते हैं कि कतिपय जैन यति भी राज परिवारों की वंशावलियां रखते थे। खरतरगच्छ के जैन यति मारवाड़ राजवंश के कुलगुरु माने जाते थे। राजवंश की वंशावली तैयार करना, शासकों तथा उनके परिवारों के सदस्यों के कार्यकलापों का विस्तृत विवरण रखना आदि उनका मुख्य कार्य रहा था। इस प्रकार वंशावलियां और पिढियावलियां शासकों, सामन्तों, महारानियों, राजकुमारों, मंत्रियों नायकों आदि के साथ-साथ कतिपय मुख्य घटनाओं का विवरण भी उल्लेखित करती है। फलत: इतिहास के व्यक्तिक्रम, घटनाक्रम और संदर्भक्रम के स्रोत की दृष्टि से वंशावलियां महत्वपूर्ण साधन बन जाती है। अमरसात्य वंशावली, सूर्यवंश वंशावली, राणाजी री वंशावली सिसोद वंशावली तवारीख वंशावली इत्यादि इसके उदाहरण हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वंशावलियां १६वीं शताब्दी पूर्व से लिखी जाती रही थीं। परंतु उनमें अधिकांश वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। यह भी आवश्यक नहीं है कि किसी विसिष्ठ व्यक्ति द्वारा एक ही समय में वंशाविलियां लिखी गई थी, अपितु यह लेखन परम्परा भी पैतृक रही थी। इसीलिए अधिकांश वंशावलियों में किसी लेखक का नाम नहीं मिलता है।

वंशावलियों, पीढियावलियों और पट्टावलियों के पश्चात् विगत, हकीगत वचनिका आदि वर्णनात्मक और सूचनात्मक गद्दाविद्या है। इसमें इतिहास की दृष्टि से शासक, शासकीय परिवार, राज्य के प्रमुख व्यक्ति अथवा उनके राजनीतिक, सामाजिक व्यक्तित्व का विवरण मिलता है। आर्थिक दृष्टि से विगत में उपलब्ध आंकड़े आदि तत्कालीन आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों और व्यवहारों को समझने एवं इतिहास-प्रभाव हेतु अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए हैं।

विगत हकीगत के वश्चात् बात या वात साहित्य भी राजस्थान में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। बात का शाब्दिक अर्थ है वर्णन अथवा कथा। इस साहित्य की रचना मुख्य रुप से १७वीं और १८वीं शताब्दी में हुई थी। बातें दो प्रकार की होती हैं :-

(१) एस तो ख्लाल में अंग के रुप में अर्थात् जिनका निर्माण इतिहास की दृष्टि से ऐतिहासिक पुरुष या ऐतिहासिक तथ्य के आधार पर साहित्य सृजन के उद्देश्य से किया गया;

(२) दूसरी प्रकार की बातें ऐतिहासिक तथ्यों से आधार पर कथा कहने की कला के विकाश के पूर में मिलती है।

इस प्रकार बातों में ऐतिहासिक तथ्य गौण और कल्पना तत्व अधिक होता है फिर भी ""अंग विच्छेद'' पद्धति के अनुरुप इन बातों से जहां तथ्य-निरुपण करने में सहायता मिलती रही है, वहीं सामाजिक और संस्कृतिक दशा को जानने हेतु भी यह प्राथमिक स्रोत के रुप में अपना स्थान रखती है।

राजस्थान में उपलब्ध बातों की इतनी प्रचुरता है कि सभी का नाम उल्लेखित करना संभव नहीं है, किन्तु कतिपय महत्वपूर्ण बातों में जगत पंवार की बात, कुवरंसी सांखला की बात, रावलराणाजी री बात आदि के अतिरिक्त कुछ ख्यातें भी बातों का संकलन हैं, ऐसी ख्यातों में नैणसी और बांकीदास की ख्यात मुख्य है।

राजस्थान की गद्य विद्या का अत्यन्त प्रौढ़ और उत्कृष्ट स्वरुप ख्यात साहित्य में विद्यमान है, वहीं इतिहास की दृष्टि से ख्यात में अन्य साहित्य-विद्याओं से अधिक विश्वसनीय, तथ्यात्मक और ऐतिहासिकता का आधार है। इतिहास में इनकी स्रोत भूमिका को देखते हुए कहा जा सकता है कि ख्यात साहित्य इतिहास शोध की अमूल्य निधी है। ख्यात मूलत: संस्कृत भाषा का शब्द है और शब्दार्थ की दृष्टि से इसका आशय ख्यातियुक्त, प्रख्यात, विख्यात, कीर्ति आदि है। किंतु राजस्थान में इसका संदर्भ इतिहास के पर्याय के रुप में प्रयुक्त होता रहा है। इसमें प्रत्येक वंश या विशिष्टि वंश के किसी पुरुष या पुरुषों के कार्यों और उपलब्धियों का हाल मिलता है। ख्यातों का नामांकरण वंश, राज्य या लेखक केनाम से किया जाता रहा है, जैसे - राठौड़ां री ख्यात, मारवाड़ राज्य री ख्यात, शाहपुरा राज्य री ख्यात, नैणसी री ख्यात आदि।

ख्यात - साहित्य का सृजन मुगल बादशाह अकबर के काल से प्रारंभ माना जाता है। अकबर के शासन काल में जब अबुलफजल द्वारा अकबरनामा के लेखन हेतु सामग्री एकत्रित की गई तब विभिन्न राजपूताना की रियासतों को उनके राज्य, वंश तथा ऐतिहासिक विवरण भेजने के लिए बादशाह द्वारा आदेश दिया गया था। इसी संदर्भ में प्रत्येक राज्यों में ख्यातें लिखी गई। इस प्रकार १६वीं शताब्दी के उतरार्द्ध से ख्यात लेखन परम्परा आरम्भ हुई, किन्तु इनमें १५वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से ही ऐतिहासिक वर्णन लिखा हुआ मिलता है। कतिपय ख्यातें उनके मूल रुप में प्राप्त होती है, परन्तु अधिकांश लिपिकारों द्वारा बाद में प्रतिलिपि मिलती हैं। इन प्रतिलिपि, ख्यातों में प्रतिलिपिकारों ने अपने-अपने ढंग से प्रसंग जोड़कर भी लिख दिये हैं। अत: विभिन्न प्रतिलिपियों के तुलनात्मक अध्ययन और सम्पादित किये पाठों की ख्यात ही इतिहास शोध हेतु उपयोगी कही जा सकती है।

ख्यात लेखन का आधार प्राचीन बहियां समकालीन ऐतिहासिक विवरण, बड़वा-भाटों की वंशावलियां, श्रुति परम्परा से चली आ रही है।

ख्यातों में समाज की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक प्रवृष्टियों का विस्तृत दिग्दर्शन ही नहीं होता, अपितु तत्कालीनी और पूर्वकालीक मानव जीवन के आदर्श और सम्पूर्ण व्यवहार का इतिहास-बोध भी प्राप्त होता है। इस प्रकार तात्कालिक भाषा साहित्य, संगीत, कला, विज्ञान आदि की प्रगति पर भी ख्यात साहित्य में लिखा हुआ प्राप्त होता है।

ख्यातों में ऐतिहासिक दृष्टि से कतिपय दोष भी है। ख्यातें राज्याश्रय में लिखी जाने के कारण अतिश्योक्ति पूर्ण विवरण की सम्भावनाओं से वंचित नहीं है। इनमें अपने-अपने राज्य अथवा आश्रयदाता के वंश का बढ़-चढ़कर महत्व बतलाने की चेष्टायें हमें दिखलाई देती हैं।

भौगोलिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य

राजस्थान की चोहरी इसे एक पतंगाकार आकृति प्रदान करता है। राज्य २३ ० से ३० ० अक्षांश और ६९ ० से ७८ ० देशान्तर के बीच स्थित है। इसके उत्तर में पाकिस्तान, पंजाब और हरियाणा, दक्षिण में मध्यप्रदेश और गुजरात, पूर्व में उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश एवं पश्चिम में पाकिस्तान है।

सिरोही से अलवर की ओर जाती हुई ४८० कि.मी. लम्बी अरावली पर्वत श्रृंखला प्राकृतिक दृष्टि से राज्य को दो भागों में विभाजित करती है। राजस्थान का पूर्वी सम्भाग शुरु से ही उपजाऊ रहा है। इस भाग में वर्षा का औसत ५० से.मी. से ९० से.मी. तक है। राजस्थान के निर्माण के पश्चात् चम्बल और माही नदी पर बड़े-बड़े बांध और विद्युत गृह बने हैं, जिनसे राजस्थान को सिंचाई और बिजली की सुविधाएं उपलब्ध हुई है। अन्य नदियों पर भी मध्यम श्रेणी के बांध बने हैं। जिनसे हजारों हैक्टर सिंचाई होती है। इस भाग में ताम्बा, जस्ता, अभ्रक, पन्ना, घीया पत्थर और अन्य खनिज पदार्थों के विशाल भण्डार पाये जाते हैं।

राज्य का पश्चिमी संभाग देश के सबसे बड़े रेगिस्तान "थारपाकर' का भाग है। इस भाग में वर्षा का औसत १२ से.मी. से ३० से.मी. तक है। इस भाग में लूनी, बांड़ी आदि नदियां हैं, जो वर्षा के कुछ दिनों को छोड़कर प्राय: सूखी रहती हैं। देश की स्वतंत्रता से पूर्व बीकानेर राज्य गंगानहर द्वारा पंजाब की नदियों से पानी प्राप्त करता था। स्वतंत्रता के बाद राजस्थान इण्डस बेसिन से रावी और व्यास नदियों से ५२.६ प्रतिशत पानी का भागीदार बन गया। उक्त नदियों का पानी राजस्थान में लाने के लिए सन् १९५८ में राजस्थान नहर (अब इंदिरा गांधी नहर) की विशाल परियोजना शुरु की गई। यह परियोजना सन् २००५ तक सम्पूर्ण होगी। इस परियोजना पर ३००० करोड़ रु. व्यय होने का अनुमान है। इस समय इस पर १६०० करोड़ रु. व्यय हो चुके हैं। अब तक ६४९ कि.मी. लम्बी मुख्य नहर पूरी हो चुकी है। नहर की वितरिका प्रणाली लगभग ९००० कि.मी. होगी, इनमें से ६००० कि.मी. वितरिकाएं बन चुकी है। इस समय १० लाख हैक्टेयर भूमि परियोजना के सिंचाई क्षेत्र में आ गई है। परियोजना के पूरी होने के बाद क्षेत्र की कुल १५.७९ लाख हैक्टेयर भूमि सिंचाई से लाभान्वित होगी, जिससे ३५ लाख टन खाद्यान्न, ३ लाख टन वाणिज्यिक फसलें एवं ६० लाख टन घास उत्पन्न होगी। परियोजना क्षेत्र में कुल ५ लाख परिवार बसेंगे। जोधपुर, बीकानेर, चुरु एवं बाड़मेर जिलों के नगर और कई गांवों को नहर से विभिन्न "लिफ्ट परियोजनाओं' से पहुंचाये गये पीने का पानी उपलब्ध होगा। इस प्रकार राजस्थान के रेगिस्तान का एक बड़ा भाग शस्य श्यामला भूमि में बदल जायेगा। सूरतगढ़ में यह नजारा इस समय भी देखा जा सकता है।

इण्डस बेसिन की नदियों पर बनाई जाने वाली जल-विद्युत योजनाओं में भी राजस्थान भागीदार है। इसे इस समय भाखरा-नांगल और अन्य योजनाओं के कृषि एवं औद्योगिक विकास में भरपूर सहायता मिलती है। राजस्थान नहर परियोजना के अलावा इस भाग में जवाई नदी पर निर्मित एक बांध है, जिससे न केवल विस्तृत क्षेत्र में सिंचाई होती है, वरन् जोधपुर नगर को पेय जल भी प्राप्त होता है। यह सम्भाग अभी तक औद्योगिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है। पर इस क्षेत्र में ज्यो-ज्यों बिजली और पानी की सुविधाएं बढ़ती जायेंगी औद्योगिक विकास भी गति पकड़ लेगा। इस बाग में लिग्नाइट, फुलर्सअर्थ, टंगस्टन, बैण्टोनाइट, जिप्सम, संगमरमर आदि खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। जैसलमेर क्षेत्र में तेल मिलने की अच्छी सम्भावनाएं हैं। हाल ही की खुदाई से पता चला है कि इस क्षेत्र में उच्च कि की गैस प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अब वह दिन दूर नहीं है जबकि राजस्थान का यह भाग भी समृद्धिशाली बन जाएगा।

राज्य का क्षेत्रफल ३.४२ लाख वर्ग कि.मी. है जो भारत के क्षेत्रफल का १०.४० प्रतिशत है। यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है। वर्ष १९९६-९७ में राज्य में गांवों की संख्या ३७८८९ और नगरों तथा कस्बों की संख्या २२२ थी। राज्य में ३२ जिला परिषदें, २३५ पंचायत समितियां और ९१२५ ग्राम पंचायतें हैं। नगर निगम २ और सभी श्रेणी की नगरपालिकाएं १८० हैं।

सन् १९९१ की जनगणना के अनुसार राज्य की जनसंख्या ४.३९ करोड़ थी। जनसंखाय घनत्व प्रति वर्ग कि.मी. १२६ है। इसमें पुरुषों की संख्या २.३० करोड़ और महिलाओं की संख्या २.०९ करोड़ थी। राज्य में दशक वृद्धि दर २८.४४ प्रतिशत थी, जबकि भारत में यह दर २३.५६ प्रतिशत थी। राज्य में साक्षरता ३८.८१ प्रतिशत थी. जबकि भारत की साक्षरता तो केवल २०.८ प्रतिशत थी जो देश के अन्य राज्यों में सबसे कम थी। राज्य में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति राज्य की कुल जनसंख्या का क्रमश: १७.२९ प्रतिशत और १२.४४ प्रतिशत है।

१९९६-९७ के अन्त में प्राथमिक विद्यालय ३३८९, उच्च प्राथमिक विद्यालय १२,६९२, माध्यमिक विद्यालय ३५०१ और वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय १४०४ थे। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विश्वविद्यालय ६, "डीम्ड' विश्वविद्यालय ४, कला वाणिज्य और विज्ञान महाविद्यालय २३१, इंजीनियकिंरग कॉलेज ७, मेडिकल कॉलेज ६, आयुर्वेद महाविद्यालय ५ और पोलीटेक्निक २४ हैं। राज्य में हॉस्पिटल २९, डिस्पेंसरियां २७८, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र १६१६, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र २६१, शहरी सहायता केन्द्र १३, उपकेन्द्र ९४००, मातृ एवं शिशु कल्याण केन्द्र ११८ एवं अन्तरोगी शैय्या में ३६७०२ हैं। आयुर्वेद औषधालयो की संख्या ३५७१ और होम्योपैथी चिकित्सालयों की संख्या १४६८ और भ्रमणशील पशु चिकित्सालयों की संख्या ५३ है।

राज्य में पशुधन की संख्या ६ करोड़ से अधिक है। राज्य के सभी नगर एवं ३७,२७४ गांव सुरक्षित पेय जल योजना के अन्तर्गत आ चुके हैं। राज्य में सड़कों की कुल लम्बाई १,३८,००० कि.मी. थी और वाहनों की संख्या १९.८ लाख थी। इनमें कारों और जीपों की संख्या १,६० लाख थी।

१९९६-९७ में राज्य का सकल घरेलू उत्पाद स्थिर कीमतों पर लगभग १२४२० करोड़ रु. और सुद्ध घरेलू उत्पाद ११,०२१ करोड़ रु का था। राज्य में प्रति व्यक्ति आय २,२३२ रु. थी। उक्त वर्ष राज्य में खाद्यान्न उत्पाद १२७०२ लाख टन था और तिलहन तथा कपास का उत्पादन क्रमश: ४० लाख टन और १२.९५ लाख गांठें थी। राज्य में फसलों के अन्तर्गत कुल १७५ लाख हैक्टेयर क्षेत्र था। इसका २९ प्रतिशत सिंचित क्षेत्र था।

राज्य में १९९६ में शक्कर का उत्पादन ३१ हजार टन, वनस्पति घी का ३० हजार टन, नमक का ११ लाख टन, सीमेन्ट का ६६ लाख टन, सूती कपडे का ४५७ लाख मीटर और पोलिएस्टर धागे का उत्पादन ११५०० टन हुआ। प्रदेश में १९९६ में सार्वजनिक क्षेत्र में १०.१० लाख और निजी क्षेत्र में २.५६ लाख व्यक्ति कार्यरत थे। राज्य में बैंकों की कुल शाखाएं ३२१७ थीं, जिनमें क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की १०७० शाखाएं शामिल हैं।

राजस्थान : एक परिचय

राजस्थान पुत्र गर्भा सदा से रहा है। अगल भारत का इतिहास लिखना है तो प्रारंभ निश्चित रुप से इसी प्रदेश से करना होगा। यह प्रदेश वीरों का रहा है। यहाँ की चप्पा-चप्पा धरती शूरवीरों के शौर्य एवं रोमांचकारी घटनाचक्रों से अभिमण्डित है। राजस्थान में कई गढ़ एवं गढ़ैये ऐसे मिलेंगे जो अपने खण्डहरों में मौन बने युद्धों की साक्षी के जीवन्त अध्याय हैं। यहाँ की हर भूमि युद्धवीरों की पदचापों से पकी हुई है।



प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासविद जेम्स टॉड राजस्थान की उत्सर्गमयी वीर भूमि के अतीत से बड़े अभिभूत होते हुए कहते हैं, ""राजस्थान की भूमि में ऐसा कोई फूल नहीं उगा जो राष्ट्रीय वीरता और त्याग की सुगन्ध से भरकर न झूमा हो। वायु का एक भी झोंका ऐसा नहीं उठा जिसकी झंझा के साथ युद्ध देवी के चरणों में साहसी युवकों का प्रथान न हुआ हो।''

आदर्श देशप्रेम, स्वातन्त्रय भावना, जातिगत स्वाभिमान, शरणागत वत्सलता, प्रतिज्ञा-पालन, टेक की रक्षा और और सर्व समपंण इस भूमि की अन्यतम विशेषताएँ हैं। ""यह एक ऐसी धरती है जिसका नाम लेते ही इतिहास आँखों पर चढ़ आता है, भुजाएँ फड़कने लग जाती हैं और खून उबल पड़ता है। यहाँ का जर्रा-जर्रा देशप्रेम, वीरता और बलिदान की अखूट गाथा से ओतप्रोत अपने अतीत की गौरव-घटनाओं का जीता-जागता इतिहास है। इसकी माटी की ही यह विशेषता है कि यहाँ जो भी माई का लाल जन्म लेता है, प्राणों को हथेली पर लिये मस्तक की होड़ लगा देता है। यहाँ का प्रत्येक पूत अपनी आन पर अड़िग रहता है। बान के लिये मर मिटता है और शान के लिए शहीद होता है।''

राजस्थान भारत वर्ष के पश्चिम भाग में अवस्थित है जो प्राचीन काल से विख्यात रहा है। तब इस प्रदेश में कई इकाईयाँ सम्मिलित थी जो अलग-अलग नाम से सम्बोधित की जाती थी। उदाहरण के लिए जयपुर राज्य का उत्तरी भाग मध्यदेश का हिस्सा था तो दक्षिणी भाग सपालदक्ष कहलाता था। अलवर राज्य का उत्तरी भाग कुरुदेश का हिस्सा था तो भरतपुर, धोलपुर, करौली राज्य शूरसेन देश में सम्मिलित थे। मेवाड़ जहाँ शिवि जनपद का हिस्सा था वहाँ डूंगरपुर-बांसवाड़ा वार्गट (वागड़) के नाम से जाने जाते थे। इसी प्रकार जैसलमेर राज्य के अधिकांश भाग वल्लदेश में सम्मिलित थे तो जोधपुर मरुदेश के नाम से जाना जाता था। बीकानेर राज्य तथा जोधपुर का उत्तरी भाग जांगल देश कहलाता था तो दक्षिणी बाग गुर्जरत्रा (गुजरात) के नाम से पुकारा जाता था। इसी प्रकार प्रतापगढ़, झालावाड़ तथा टोंक का अधिकांस भाग मालवादेश के अधीन था।

बाद में जब राजपूत जाति के वीरों ने इस राज्य के विविध भागों पर अपना आधिपत्य जमा लिया तो उन भागों का नामकरण अपने-अपने वंश अथवा स्थान के अनुरुप कर दिया। ये राज्य उदयपु, डूंगरपुर, बांसवाड़, प्रतापगढ़, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, सिरोही, कोटा, बूंदी, जयपुर, अलवर, भरतपुर, करौली, झालावाड़, और टोंक थे। (इम्पीरियल गजैटियर)

इन राज्यों के नामों के साथ-साथ इनके कुछ भू-भागों को स्थानीय एवं भौगोलिक विशेषताओं के परिचायक नामों से भी पुकारा जाता है। ढ़ूंढ़ नदी के निकटवर्ती भू-भाग को ढ़ूंढ़ाड़ (जयपुर) कहते हैं। मेव तथा मेद जातियों के नाम से अलवर को मेवात तथा उदयपुर को मेवाड़ कहा जाता है। मरु भाग के अन्तर्गत रेगिस्तानी भाग को मारवाड़ भी कहते हैं। डूंगरपुर तथा उदयपुर के दक्षिणी भाग में प्राचीन ५६ गांवों के समूह को ""छप्पन'' नाम से जानते हैं। माही नदी के तटीय भू-भाग को कोयल तथा अजमेर के पास वाले कुछ पठारी भाग को ऊपरमाल की संज्ञा दी गई है। (गोपीनाम शर्मा / सोशियल लाइफ इन मेडिवियल राजस्थान / पृष्ठ ३)

अंग्रेजों के शासनकाल में राजस्थान के विभिन्न इकाइयों का एकीकरण कर इसका राजपूताना नाम दिया गया, कारण कि उपर्युक्त वर्णित अधिकांश राज्यं में राजपूतों का शासन था। ऐसा भी कहा जाता है कि सबसे पहले राजपूताना नाम का प्रयोग जार्ज टामस ने किया। राजपूताना के बाद इस राज्य को राजस्थान नाम दिया गया। आज यह रंगभरा प्यारा प्रदेश इसी राजस्थान के नाम से जाना जाता है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राजपूताना और राजस्थान दोनों नामों के मूल में "राज' शब्द मुख्य रुप से उभरा हुआ है जो इस बात का सूचक है कि यह भूमि राजपूतों का वर्च लिये रही और इस पर लम्बे समय तक राजपूतों का ही शासन रहा। इन राजपूतों ने इस भूमि की रक्षा के लिए जो शौर्य, पराक्रम और बलिदान दिखाया उसी के कारण सारे वि में इसकी प्रतिष्ठा सर्वमान्य हुई। राजपूतों की गौरवगाथाओं से आज भी यहाँ की चप्पा-चप्पा भूमि गर्व-मण्डित है।

प्रसिद्ध इतिहास लेखक कर्नल टॉड ने इस राज्य का नाम "रायस्थान' रखा क्योंकि स्थानीय साहित्य एवं बोलचाल में राजाओं के निवास के प्रान्त को रायथान कहते थे। इसा का संस्कृत रुप राजस्थान बना। हर्ष कालीन प्रान्तपति, जो इस भाग की इकाई का शासन करते थे, राजस्थानीय कहलाते थे। सातवीं शताब्दी से जब इस प्रान्त के भाग राजपूत नरेशों के आधीन होते गये तो उन्होंने पूर्व प्रचलित अधिकारियों के पद के अनुरुप इस भाग को राजस्थान की संज्ञा दी जिसे स्थानीय साहित्य में रायस्थान कहते थे। जब भारत स्वतंत्र हुआ तथा कई राज्यों के नाम पुन: परिनिष्ठित किये गये तो इस राज्य का भी चिर प्रतिष्ठित नाम राजस्थान स्वीकार कर लिया गया। (डॉ. गोपीनाम शर्मा / राजस्थान का सांस्कृतिक इतिहास / राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर / प्रथम संस्करण १९८९ / पृष्छ ३)।

भौगोलिक संरचना के समन्वयात्मक सरोकार

अगर इस प्रदेश की भौगोलिक संरचना को देख तो राजस्थान के दो प्रमुख भौगोलिक क्षेत्र हैं। पहला, पश्चिमोत्तर जो रेगिस्तानीय है, और दूसरा दक्षिण-पूर्वी भाग जो मैदानी व पठारी है। पश्चिमोत्तर नामक रेगिस्तानी भाग में जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर जिले आते हैं। यहाँ पानी का अभाव और रेत फैली हुई है। दक्षिण-पूर्वी भाग कई नदियों का उपजाऊ मैदानी भाग है। इन नदियों में चम्बल, बनास, माही आदि बड़ी नदियाँ हैं। इन दोनों भागों के बीचोंबीच अर्द्धवर्तीय पर्वत की श्रृंखलाएं हैं जो दिल्ली से शुरु होकर सिरोही तक फैली हुई हैं। सिरोही जिले में अरावली पर्वत का सबसे ऊँचा भाग है जो आबू पहाड़ के नाम से जाना जाता है। इस पर्वतमाला की एक दूसरी श्रेणी अलवर, अजमेर, हाड़ौती की है जो राजस्थान के पठारी भाग का निर्माण करती हैं।

राजस्थान में बोली जाने वाली भाषा राजस्थानी कहलाती है। यह भारतीय आर्यभाषाओं की मध्यदेशीय समुदाय की प्रमुख उपभाषा है, जिसका क्षेत्रफल लगभग डेढ़ लाख वर्ग मील में है। वक्ताओं की दृष्टि से भारतीय भाषाओं एवं बोलियों में राजस्थानी का सातवां स्थान है। सन् १९६१ की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार राजस्थानी की ७३ बोलियां मानी गई हैं।

सामान्यतया राजस्थानी भाषा को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। इनमें पहला पश्चिमी राजस्थानी तथा दूसरा पूर्वी राजस्थानी। पश्चिमी राजस्थानी की मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी और शेखावटी नामक चार बोलियाँ मुख्य हैं, जबकि पूर्वी राजस्थानी की प्रतिनिधी बोलियों में ढ़ूंढ़ाही, हाड़ौती, मेवाती और अहीरवाटी है। ढ़ूंढ़ाही को जयपुरी भी कहते हैं।

पश्चिमी अंचल में राजस्थान की प्रधान बोली मारवाड़ी है। इसका क्षेत्र जोधपुर, सीकर, नागौर, बीकानेर, सिरोही, बाड़मेर, जैसलमेर आदि जिलों तक फैला हुआ है। साहित्यिक मारवाड़ी को डिंगल तथा पूर्वी राजस्थानी के साहित्यिक रुप को पिंगल कहा गया है। जोधपुर क्षेत्र में विशुद्ध मारवाड़ी बोली जाती है।

दक्षिण अंचल उदयपुर एवं उसके आसपास के मेवाड़ प्रदेश में जो बोली जाती है वह मेवाड़ी कहलाती है। इसकी साहित्यिक परम्परा बहुत प्राचीन है। महाराणा कुम्भा ने अपने चार नाटकों में इस भाषा का प्रयाग किया। बावजी चतर सिंघजी ने इसी भाषा में अपना उत्कृष्ट साहित्य लिखा। डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा का सम्मिलित क्षेत्र वागड़ के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र में जो बोली बोली जाती है उसे वागड़ी कहते हैं।

उत्तरी अंचली ढ़ूंढ़ाही जयपुर, किशनगढ़, टोंक लावा एवं अजमेर, मेरवाड़ा के पूर्वी अंचलों में बोली जाती है। दादू पंथ का बहुत सारा साहित्य इसी में लिखा गया है। ढ़ूंढ़ाही की प्रमुख बोलियों में हाड़ौती, किशनगढ़ी, तोरावाटी, राजावाटी, अजमेरी, चौरासी, नागरचोल आदि हैं।

मेवाती मेवात क्षेत्र की बोली है जो राजस्थान के अलवर जिले की किशनगढ़, तिजारा, रामगढ़, गोविन्दगढ़ तथा लक्ष्मणगढ़ तहसील एवं भरतपुर जिले की कामा, डीग तथा नगर तहसील में बोली जाती है। बूंदी, कोटा तथा झालावाड़ क्षेत्र होड़ौती बोली के लिए प्रसिद्ध हैं।

अहीरवाटी अलवर जिले की बहरोड़ तथा मुण्डावर एवं किशनगढ़ जिले के पश्चिम भाग में बोली जाती है। लोकमंच के जाने-माने खिलाड़ी अली बख्स ने अपनी ख्याल रचनायें इसी बोली में लिखी।

राजस्थान की इस भौगोलिक संरचना का प्रभाव यहाँ के जनजीवन पर कई रुपों में पड़ा और यहाँ की संस्कृति को प्रभावित किया। अरावली पर्वत की श्रेणियों ने जहाँ बाहरी प्रभाव से इस प्रान्त को बचाये रखा वहाँ यहाँ की पारम्परिक जीवनधर्मिता में किसी तरह की विकृति नहीं आने दी। यही कारम है कि यहाँ भारत की प्राचीन जनसंस्कृति के मूल एवं शुद्ध रुप आज भी देखने को मिलते हैं।

शौर्य और भक्ति की इस भूमि पर युद्ध निरन्तर होते रहे। आक्रान्ता बराबर आते रहे। कई क्षत्रिय विजेता के रुप में आकर यहाँ बसते रहे किन्तु यहां के जीवनमूल्यों के अनुसार वे स्वयं ढ़लते रहे और यहाँ के बनकर रहे। बड़े-बड़े सन्तों, महन्तों और न्यागियों का यहाँ निरन्तर आवागमन होता रहा। उनकी अच्छाइयों ने यहाँ की संस्कृति पर अपना प्रभाव दिया, जिस कारण यहाँ विभिन्न धर्मों और मान्यताओं ने जन्म लिया किन्तु आपसी सौहार्द और भाईचारे ने यहाँ की संस्कृति को कभी संकुचित और निष्प्रभावी नहीं होने दिया।

राजस्थान में सभी अंचलों में बड़े-बड़े मन्दिर और धार्मिक स्थल हैं। सन्तों की समाधियाँ और पूजास्थल हैं। तीर्थस्थल हैं। त्यौहार और उत्सवों की विभिन्न रंगीनियां हैं। धार्मिक और सामाजिक बड़े-बड़े मेलों की परम्परा है। भिन्न-भिन्न जातियों के अपने समुदायों के संस्कार हैं। लोकानुरंजन के कई विविध पक्ष हैं। पशुओं और वनस्पतियों की भी ऐसी ही खासियत है। ख्यालों, तमाशों, स्वांगों, लीलाओं की भी यहाँ भरमार हैं। ऐसा प्रदेश राजस्थान के अलावा कोई दूसरा नहीं है।

स्थापत्य की दृष्टि से यह प्रदेश उतना ही प्राचीन है जितना मानव इतिहास। यहां की चम्बल, बनास, आहड़, लूनी, सरस्वती आदि प्राचीन नदियों के किनारे तथा अरावली की उपत्यकाओं में आदिमानव निवास करता था। खोजबीन से यह प्रमाणित हुआ है कि यह समय कम से कम भी एक लाख वर्ष पूर्व का था।

यहां के गढ़ों, हवेलियों और राजप्रासादों ने समस्त वि का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। गढ़-गढ़ैये तो यहाँ पथ-पथ पर देखने को मिलेंगे। यहां का हर राजा और सामन्त किले को अपनी निधि और प्रतिष्ठा का सूचक समझता था। ये किले निवास के लिये ही नहीं अपितु जन-धन की सुरक्षा, सम्पति की रक्षा, सामग्री के संग्रह और दुश्मन से अपने को तथा अपनी प्रजा को बचाने के उद्देश्य से बनाये जाते थे।

बोलियों के लिए जिस प्रकार यह कहा जाता है कि यहां हर बारह कोस पर बोली बदली हुई मिलती हैं - बारां कोसां बोली बदले, उसी प्रकार हर दस कोस पर गढ़ मिलने की बात सुनी जाती है। छोट-बड़ा कोई गढ़-गढ़ैया ऐसा नही मिलेगा जिसने अपने आंगन में युद्ध की तलवार न तानी हो। खून की छोटी-मोटी होली न खेली हो और दुश्मनों के मस्तक को मैदानी जंग में गेंद की तरह न घुमाया हो। इन किलों का एक-एक पत्थर अपने में अनेक-अनेक दास्तान लिये हुए है। उस दास्तान को सुनते ही इतिहास आँखों पर चढञ आता है और रोम-रोम तीर-तलवार की भांति अपना शौर्य लिये फड़क उठता है।

शुक नीतिकारों ने दुर्ग के जिन नौ भेदों का उल्लेख किया है वे सभी प्रकार के दुर्ग यहां देखने को मिलते हैं। इनमें जिस दुर्ग के चारों ओर खाई, कांटों तथा पत्थरों से दुर्गम मार्ग बने हों वह एरण दुर्ग कहलाता है। चारों ओर जिसके बहुत बड़ी खाई हो उसे पारिख दुर्ग की संज्ञा दी गई हैं। एक दुर्ग पारिख दुर्ग कहता है जिसके चारो तरफ ईंट, पत्थर और मिट्टी की बड़ी-बड़ी दिवारों का विशाल परकोटा बना हुआ होता है। जो दुर्ग चारों ओर बड़े-बड़े कांटेदार वृक्षों से घिरा हुआ होता है वह वन दुर्ग ओर जिसके चारों ओर मरुभूमि का फैलाव हो वह धन्व दुर्ग कहलाता है।

इसी प्रकार जो दुर्ग चारों ओर जल से घिरा हो वह जल दुर्ग की कोटि में आता है। सैन्य दुर्ग अपने में विपुल सैनिक लिये होता है जबकि सहाय दुर्ग में रहने वाले शूर एवं अनुकूल आचरण करने वाले लोग निवास करते हैं। इन सब दुर्गों में सैन्य दुर्ग सर्वश्रेष्ठ दुर्ग कहा गया है।

""श्रेष्ठं तु सर्व दुर्गेभ्य: सेनादुर्गम: स्मृतं बुद:।''

राजस्थान का चित्तौड़ का किला तो सभी किलों का सिरमौर कहा गया है। कुम्भलगढ़, रणथम्भौर, जालौर, जोधपुर, बीकानेर, माण्डलगढ़ आदि के किले देखने से पता चलता है कि इनकी रचना के पीछे इतिहास, पुरातत्व, जीवनधर्म और संस्कृति के कितने विपुल सरोकार सचेतन तत्व अन्तर्निहित हैं।

यही स्थिति राजप्रासादों और हवेलियों की रही है। इनके निर्माण पर बाहर से आने वाले राजपूतों तथा मुगलों की संस्कृति का प्रभाव भी स्पष्टता: देखने को मिलता है। बूंदी, कोटा तथा जैसलमेर के प्रासाद मुगलसैली से प्रभावित हैं, जबकि उदयपुर का जगनिवास, जगमन्दिर, जोधपुर का फूलमहल, आमेर व जयपुर का दीवानेखास व दीनानेआम, बीकानेर का रंगमहल, शीशमहल आदि राजपूत व मुगल पद्धति का समन्व्य लिये हैं। मन्दिरों के स्थापत्य के साथ भी यही स्थिति रही। इन मन्दिरों के निर्माण में हिन्दू, मुस्लिम और मुगल शैली का प्रभाव देखकर उस समय की संस्कृति, जनजीवन, इतिहास और शासन प्रणाली का अध्ययन किया जा सकता है।

आबू पर्वत पर ४००० फुच की ऊँचाई पर बसे देलवाड़ा गाँव के समीप बने दो जैन मन्दिर संगमरमर के प्रस्तरकला की विलक्षण जालियों, पुतलियों, बेलबूटों और नक्काशियों के कारण सारे वि के महान आश्चर्य बने हुए हैं। प्रख्यात कला-पारखी रायकृष्ण दास इनके सम्बन्ध में अपना विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं -

संगमरमर ऐसी बारीकी से तराशा गया है
कि मानो किसी कुशल सुनार ने रेती से
रेत-रेत कर आभूषण बनाये हो। यहां पहुंचने
पर ऐसा मालूम होता है कि स्वप्न के
अद्भूत लोक में आ गये हैं। इनकी सुन्दरता
ताज से भी कहीं अधिक है। (भारतीय मूर्तिकार /
पृष्ठ १३३-१३४)

इसी प्रकार जोधपुर का किराड़ मन्दिर, उदयपुर का नागदा का सास-बहू का मन्दिर, अर्घूणा का जैन मन्दिर, चित्तौड़ का महाराणा कुम्बा द्वारा निर्मित कीर्तिस्तम्भ, रणकपुर का अनेक कलात्मक खम्भों के लिये प्रसिद्ध जैन मन्दिर, बाड़मेर का किराडू मन्दिर स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। हवेली स्थापत्य की दृष्टि से रामगढ़, नवलगढ़, फतेहपुर की हवेलियां देखते ही बनती हैं। जैसलमेर की पटवों की हवेली तथा नथमल एवं सालमसिंह की हवेली, पत्थर की जाली एवं कटाई के कारण विश्वप्रसिद्ध हो गई। हवेली शैली के आधार पर यहां के वैष्णव मन्दिर भी बड़े प्रसिद्ध हैं। इन हवेलियों के साथ-साथ यहां के हवेली संगीत तथा हवेली-चित्रकला ने बी सांस्कृतिक जगत में अपनी अनूठी पहचान दी है।

चित्रकला की दृष्टि से भी राजस्थान अति समृद्ध है। यहाँ विभिन्न शैलियों के चित्रों का प्रचुर मात्रा में सजृन किया गया। ये चित्र किसी एक स्थान और एक कलाकार द्वारा निर्मित नहीं होकर विभिन्न नगरों, राजधानियों, धर्मस्थलों और सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों की देन हैं। राजाओं, सामन्तों, जागीरदारों, श्रेष्ढीजनों तथा कलाकारों द्वारा चित्रकला के जो रुप उद्घाटित हुए वे अपने समग्र रुप में राजस्थानी चित्रकला के व्यापक परिवेश से जुड़े किन्तु कवियों, चितासे, मुसव्विरों, मूर्तिकारों, शिल्पाचार्यों आदि का जमघट दरबारों में होने के कारण राजस्थानी चित्रकला की अजस्र धारा अनेक रियासती शैलियों, उपशैलियों को परिप्लावित करती हुई १७वीं-१८वीं शती में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची। अधिकांश रियासतों के चित्रकारों ने जिन-जिन तौर-तरीकों के चित्र बनाए, स्थानानुसार अपनी परिवेशगत मौलिकता, राजनैतिक सम्पर्क, सामाजिक सम्बन्धों के कारण वहां की चित्रशैली कहलाई।

डॉ. जयसिंह "नीरज' ने राजस्थानी चित्रकला को चार प्रमुख स्कूलों में विभाजिक करते हुए उसका

मेवाड़ स्कूल;
मारवाड़ स्कूल;
ढ़ूंढ़ाड़ स्कूल; और
हड़ौती स्कूल

नाम दिया।

मेवाड़ स्कूल की चित्रकला में राजस्थानी चित्रकला का प्रारम्भिक और मौलिक स्वरुप देखने को मिलता है। महाराणा प्रताप की राजधानी चावण्ड में चित्रकला का जो विशिष्ट रुप उजागर हुआ वह चावण्डशैली के नाम से जाना गया। बहुप्रसिद्ध रागमाला के चित्र चावण्ड में ही बनाये गये। इसके बाद महाराना उदयसिंह ने जब उदयपुर को अपनी राजधानी बनाया तब यहां जो चित्रशैली समृद्ध हुई वह उदयपुरशैली कहलाई। इस शैली में सूरसागर, रसिकप्रिया, गीतगोविन्द, बिठारी सतसई आदि के महत्वपूर्ण चित्र बनाये गये। विभिन्न राग-रागिनियों तथा महलों के भित्तिचित्र भी इस शैली की विशिष्ट देन हैं।

सन् १६७० में जब श्रीनाथ जी का विग्रह नाथद्वारा में प्रतिष्ठित किया गया तो उनके साथ ब्रज की चित्र परम्परा भी यहां विरासत में आई। यहां उदयपुर और ब्रज की चित्रशैली के समन्वय ने एक नई शैली के नाम से जानी गयी। इस शैली में श्रीनाथ जी के स्वरुप के पीछे सज्जा के लिए कपड़े पर बने पिछवाई चित्र सर्वाधिक चर्चित हुए।

मारवाड़ स्कूल में जो शैली विकसित हुई वह जोधपुर, बीकानेर और किशनगढ़ शैली के नाम से प्रचलित हुई। किशनगढ़ शैली में बणीठणी के चित्र ने बड़ा नाम कमाया। बीकानेर शैली के प्रारम्भिक चित्रों में जैन यति मथेरणों का प्रभाव रहा। बाद में मुगल दरबार से जो उस्ता परिवार आया उसने यहां के संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी काव्यों को आधार बनाकर र्तृकड़ों चित्र बनाये। इनमें हिस्सामुद्दीन उस्ता ऊँट की खाल पर विशेष पद्धति से चित्रण कार्य करके ख्याति प्राप्त कर चुके हैं।

हाड़ौती अंचल में प्रमुखत: बूंदी, कोटा तथा झालावाड़ अपना विशेष कला प्रभाव लिये हैं। बूंदी के राव छत्रसाल ने रंगमहल का निर्माण करवाकर उसे बड़े ही कलात्मक भित्तिचित्रों से अलंकृत करवाया। इस शैली में कई ग्रन्थ चित्रण और लघु चित्रों का निर्माण हुआ। कोटा के राजा रामसिंह ने कोटा शैली को स्वतन्त्र अस्तित्व दिलाने का भागीरथ कार्य किया। उनके बाद महारावल भीमसिंह ने कृष्णभक्ति को विशेष महत्व दिया तो यहां की चित्रकला में वल्लभ सम्प्रदाय का बड़ा प्रभाव आया। जयपुर और उसके आसपास की चित्रकला को ढ़ूंढ़ाड़ स्कूल के नाम से सम्बोधित किया गया। इस स्कूल में आमेर, जयपुर, अलवर, शेखावटी, उणियारा, करौली आदि चित्रशैलियों का समावेश किया जा सकता है।

सांस्कृति पृष्ठबूमि के पोषक तत्व

राजस्थान के लोक संगीत ने विभिन्न अवसरों पर, वार त्यौहारों तथा अनुरंजनों पर स्वस्थ लोकानुरंजन की सांस्कृतिक परम्पराओं को जीवन्त परिवेश दिया है। विभिन्न अंचलों का लोकगीत और संगीत अपने भौगोलिक वातावरण और सांस्कृतिक हलचल के कारण अपनी निजी पहचान लिये है। इसीलिये एक ही गीत को जब अलग-अलग अंचलों के कलाकार गाते हैं तो उनके अलाप, मरोड़, ठसक और गमक में अन्तर दिखाई पड़ता है। यह अन्तर मारवाड़, मेवाड़, हाड़ौती, ढ़ूंढ़ड़ी, मेवाती आदि अंचलों के भौगोलिक रचाव-पचाव, रहन-सहन, खान-पान, बोलीचाली आदि सभी दृष्टियों की प्रतीति लिये देखा जा सकता है।

उदाहरण के लिये गणगौर पर जो घूमर गीत गाये जाते हैं उनकी गायन शैली सभी अंचलों में भिन्न-भिन्न रुप लिये मिलती है। यही स्थिति मांड गायिकी की कही जा सकती है। इस गायिकी में बीकानेर की श्रीमती अल्लाजिलाई बाई ने विशेष पहचान बनाई है। भजन के क्षेत्र में लोकगायिका सोहनीबाई ने बड़ी प्रसिद्धि ली। जैसलमेर, बाड़मेर के मांगणियारों ने अपने लोक संगीत द्वारा सारे वि में राजस्थान को गूंजा दिया। नड़, पुंगी, सतारा, मोरचंग, खड़ताल, मटकी, सारंगी, कामायचा, रावणहत्था आदि जंतर वाद्य इस क्षेत्र के कलाकार जिस गूंज के साथ बजाते हैं वैसी गूंज अन्य कोई कलाकार नहीं दे पाते। ये कलाकार अपनी ढ़गतियों और झूंपों से गीत-संगीत को लेकर दुनियां की परिक्रमा कर आये। अपने दोनों हाथों में दो-दो लकड़ी के टुकड़ो को टकरा कर संगीत की अद्भुत प्रस्तुति देने वाले खड़ताली कलाकार सिद्दीक ने जहां भी अपने कार्यक्रम दिये वहां जादू ही जादू भर दिया। दो जून की जुगाड़ नहीं करने वाले इस कलाकार को जब पद्मश्री मिली तो वह हक्का-बक्का रह गया। ऐसी ही ख्याति यहां के हिचकी, गोरबंद, पणिहारी, आलू, कुरजा, इडोणी, मूमल, कंगसिया, लूर, काजलिया, कागा गीत गाने वाले कलाकारों ने प्राप्त की।

जैसलमेर के कारण भील ने देश-भक्त डाकू के साथ-साथ अपने नड़ वारन में उतनी ही ख्याति अर्जित की। उदयपुर के दयाराम ने भवाई नृत्य में जो कमाल दिखाया उसके कारण स्वंय दयाराम ही भवाई का प्रतीक बन गया। कठपुतली नचाने में भी यह कलाकार बड़ सिद्धहस्त था। रुमानिया के तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय कठपुतली समारोह में इस कलाकार ने भारतीय लोककला मण्डल की ओर से भाग लिया और वि का सर्वोच्च पुरस्कार हासिल किया। यह कठपुतली कला इसी प्रदेश की देन कही जाती है।

उदयपुर में गणगौर उत्सव बड़ा प्रसिद्ध रहा है। इसे देखने दूर-दूर तक के लोग आते है। महाकवि पद्माकर भी इस मौके पर यहां आये और इस उत्सव को देख दो छन्द लिखे जिनमें -

""गौरन की कौनसी हमारी गणगौर है''

छन्द बहुत लोकप्रिय हुआ। महाराणा सज्जनसिंह ने गणगौर पर नाव की सवारी प्रारम्भ की। इसका गीत आज भी यहाँ गणगौर के दिनों में गूंजता हुआ मिलता है।

हेली नाव री असवारी
सज्जन राण आवे छै।

बीकानेर की ढ़ड्ढ़ो की गणगौर जितनी कीमती आभूषणों से सुसज्जित होती है उतनी किसी प्रान्त की कोई गणगौर नहीं सजती। कोटा का दशहरा और सांगोद का न्हाण आज भी बहुत प्रसिद्ध हैं।

उदयपुर संभाग के आदिवासी भीलों की गवरी नृत्य दिनकर का धार्मिक अनुष्ठान है। इसमें कई तरह के बड़े ही मजेदार स्वांग-दृश्य और खेल-तमाशे दिखाये जाते हैं। प्रतिदिन अलग-अलग स्थानों पर पूरे सवा माह उनका प्रदर्शन होता है। यह प्रदर्शन रक्षा बन्धन के ठीक दूसरे दिन प्रारम्भ हो जाता है।

राम लीलाओं और कृष्ण लीलाओं के यहां कई दल हैं जो कई-कई दिनों तक पड़ाव डालकर जनता का मनोरंजन करते हैं। ऐसे ही दल ख्यालों के हैं जो मेलों ड़ेलों तथा अन्य अवसरों पर शत-शत भर ख्याल-तमाशे करते हैं। नौटंकी, तुर्राकलंगी, अलीबख्शी, मारवाड़ी तथा चिड़ावी, शेखावटी ख्यालों की यहां अच्छी मण्डलियां विद्यमान हैं।

बीकानेर, जैसलमेर की ओर रम्मत ख्यालों के बड़े अच्छे अखाड़े हैं। होली के दिनों में बीकानेर का हर मुहल्ला रम्मतों के रंगों में सराबोर रहता है। जैसलमेर में किसी समय तेज कवि के ख्यालों की बड़ी धूम थी। बागड़ की और मावजी की भक्ति में साद लोग लीला ख्यालों का मंचन करते हैं।

ऐसी ही एक प्रसिद्ध मेला बांसवाड़ा जिले में घोटियाआंबा नामक स्थान पर भरता है। कहते हैं कि यहां इन्द्र ने गुठली बोई सो आमवृक्ष फल। कृष्ण की उपस्थिति में यहां ८८ हजार ॠषियों को आम्ररस का भोजन कराया गया। इस स्थान पर पाण्डव रहे।

जोधपुर-जैसलमेर के बीच रुणेचा में रामदेवजी का बड़ा भारी मेला लगता है। इस मेले में रामदेवजी को मानने वाले मुख्यत: छोटी जातियों के लोग बड़ी संख्या में भाग लेगे हैं। गोगामेड़ी में लोक देवता गोगाजी और पखतसर में तेजाजी का मेला बहुत प्रसिद्ध है। करौली का केलादेवी का मेला लांगुरिया गीतों से दूर-दूर तक अपनी पहचान देता हुआ पाया जाता है। पुष्कर का धार्मिक मेला पौराणिक काल से ही चला आ रहा है। डूंगरपुर जिले की आसपुर पंचायत समिति का साबंला गांव मावजी की जन्म स्थली रहा है। इसी के पास बैणेश्वर नामक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है जहां माघ पूर्णिमा को सन्त मावजी की स्मृति में मेला भरता है। यह मेला आदिवासियों का बड़ा ही धार्मिक मेला है जो राजस्थान का कुम्भ भी कहा जाता है। यहां सोम, माही व जाखम नदियों का त्रिवेणी संगम है। मावजी ने यहां तपस्या की थी।

यहां के पहनावे ने भी अपनी संस्कृति को एक भिन्न रुप में प्रस्तुत किया है। पुरुषों के सिर पर बांधी जाने वाली पाग में ही यहां कई रुप-स्वरुप और रंग-विधान देखने को मिलते हैं। पगड़ी को लेकर कुछ घटनायें तो इतिहास की अच्छी खासी दास्तान बनी हुई हैं। पगड़ी की लाज रखना, पगड़ी न झुकाना, पदड़ी पांव में रखना जैसे कई मुहावरे पगड़ी के महत्व को प्रकट करते हैं।

नारियों के परिधान कई रुपों में देखने को मिलते हैं। अलग-अलग पहनावे, अलग-अलग जातियों के सूचक हैं। ये पहनावे कई भावों, छापों, रंगों और बांधनियों के कारण प्राचीनकाल से ही बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। वर्तमान में भी आकोला, सांगानेर, बगरु, बाड़मेर आदि की छपाई के परिधान न केवल भारत में अपितु विदेशी बाजार में भी सबको लुभाते देखे गये हैं। इन परिधारों में जो चित्राकृतियाँ उभारी जाती हैं उनकी समानता सांझी चित्रों में भी देखने को मिलता हैं।

महिलाओं के पहनावे बड़ी विविधता लिये हैं। कई तरह की चूंदड़े, भांति-भांति के घाघरे और रंग बिंरंगी कांचलियों के कारण यहां की जातियों की पहचान बनी हुई है। मौसम और ॠतुओं के साथ-साथ विशिष्ट वार-त्यौहार और संस्कार पर ये पहनावे इन्द्रधनुष की विशिष्ट रंगावलियों में अपनी छवि देते दृष्टिगोचर होते हैं। घाघरों में अस्सी-अस्सी कलियों तक के घाघरे प्रचलित रहे हैं। इन कलियों में जो घेर डाले जाते हैं उन्हें पहनकर जो घूमर ली जाती है उसी के कारण यहां घूमर के रुप में नाच की एक विधा विकसित हो गई।

तात्पर्य यह है कि इस क्षेत्र के निवासियों ने अपने अभावों में और घोर गरीबी में भी अपने आपको कभी कला और संस्कृति विहीन नहीं होने दिया। गीतों, गाथाओं, कथाओं, नृत्यों, चित्रों और विविध अनुरंजनों के माध्यम से उसने अपने को सदा उल्लासमय बनाये रखा।

अपने घर को, आंगन को, खेत-खलिहान को और स्वयं अपने को सजाने की उसकी दृष्टि आदिमकाल से ही रुचि सम्पन्न नाना कलाओं में समृद्ध रही। अपने शरीर के अंग-प्रत्यंग को सजाने में उसने कई प्रसाधन खोज निकाले। पुरुष जहां अपनी दाढ़ी को सजाता है और चिलम को कलामय बनाता है वहां स्री अपने केश विन्यास और कांगसी तक को कला के कई रुपों में आंकती हुई जीवन को अधिकाधिक सरस बनाती है।

Wednesday, July 1, 2009

राजस्थान में धार्मिक जागृति के कारण

राजस्थान की धार्मिक पृष्टभूमि

धर्म सदैव भारतीयों की आत्मा का स्वरुप रहा है। राजस्थान प्रदेश भी इस क्षेत्र में कभी पीछे नहीं रहा है। यहाँ के राजपूत शासक अपने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने को तैयार रहें हैं। यहाँ के निवासी सूरमा एवं अपने धर्म पर मर मिटने वाले राजाओं के पद चिन्हों पर चलते रहे हैं। धर्म ने यहाँ के विभिन्न सम्प्रदाय एवं वर्गों के लोगों को एकता के सूत्र में बाँध रखा है। प्रार्मभ में यहाँ भी वैदिक धर्म ही प्रचलित था। घोसुण्डी अभिलेख से यह स्पष्ट होता है कि दूसरी शताब्दी ई० पू० में गज वंश के सर्वतात ने यहाँ अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न किया था।
ग्यारहवीं एवं बारहवीं शताब्दी में मुसलमानों ने निरन्तर उत्तर भारत पर आकर्मण किये, परन्तु राजस्थान के लोग वैदिक धर्म पर ही आचरण करते रहे। डॉ० जे० एन० आसोपा ने उस वैदिक धर्म को ही पौराणिक स्मात धर्म की संज्ञा दी थी। इसका मतलब यह है कि राजस्थान के लोग विभिन्न देवी - देवताओं की पूजा करते थे और वेदों में वर्णित कर्मकाण्डों को सम्पादित करवाते थे। यहाँ के लोग वर्णाश्रम में विश्वास करते थे। पुराणों में इसके प्रमाण प्राप्त होते हैं। पुराणों को लोक - परम्परा का ग्रन्थ माना जाता है और उनसे वैदिक काल से लेकर राजपूत काल के प्रारम्भ तक की जानकारी प्राप्त होती है। यह पौराणिक स्मात धर्म राजस्थान में १५००ई० तक चलता रहा।

राजस्थान में धार्मिक आन्दोलन का आशय


राजस्थान में मुसलमान आक्रमणों से पूर्व हिन्दू धर्म व जैन धर्म निर्विध्न रुप से पल्लवित हो रहे थे। मुसलमान आक्रमण के समय हिन्दू धर्म का विभाजन कई सम्प्रदायों में हो गया था। शैवमत के अनुयायी राजस्थान में पर्याप्त संख्या में थे। वे शिव की विभिन्न रुपों में पूजा करते थे। शैव धर्म के अन्य अंग थे -- लकुलीश एवं नाथ सम्प्रदाय। शिव पूजा के साथ - साथ यहाँ शक्ति की उपासना भी की जाती थी। राजपूत युद्ध प्रेमी थे। अत: उनके शासकों ने तो शक्ति (दैवी) को अपनी आराध्य या कुलदेवी के रुप में स्वीकार कर लिया था और उसकी आराधना राजस्थान में कई रुपों में की जाती थी। उदाहरणस्वरुप, बीकानेर में करणी माता, जोधपुर में नागणेची, मेवाड़ में बाण माता तथा जयपुर में अन्नपूर्णा आदि की कुल देवियों के रुप में पूजा की जाती है।
जैसलमेर के क्षेत्र में शक्ति की उपासना व्यापक रुप से होती है। वैष्णव धर्म भी राजस्थान में पर्याप्त रुप में प्रचलित था। यहाँ के नरेश भी वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। उन्होंने इस धर्म को जनसाधारण में लोकप्रिय बनाया राम की पूजा वैष्णव धर्म के अंग मात्र थी। आलोच्यकालीन मेवाड़ के राजपत्रों एवं ताम्रपत्रों पर 'श्री रामोजयति 'एवं 'रामापंण' शब्दों का उल्लेख मिलता है। बांसवाड़ा एवं जयपुर राज्य के राजपत्रों पर 'श्री रामजी 'तथा 'श्री सीता रामजी' शब्दों का प्रयोग किया गया है। जयपुर के महाराजा विजयसिंह ने अपने समय में वल्लभ सम्प्रदाय को अधिक प्रोत्साहन दिया। यद्यपि राजस्थान का कोई भी शासक जैन धर्म को अनुयायी नहीं था, तथापि यह धर्म भी यहाँ पल्लवित होता रहा। इसका कारण जैनियों का राजपूत शासकों के यहाँ पर उच्च पदों पर आसीन होना था। इसलिए जैसलमेर, नाडौल, आमेर, रणकपुर एवं आबू आदि स्थानों पर काफी संख्या में जैन मंदिरों की निर्माण हुआ।
इसके अतिरिक्त हिन्दू धर्म भी अनेक सम्प्रदायों में विभक्त था। वे अपने - अपने इष्ट देवताओं की पूजा करते थे। राजस्थान के विभिन्न स्थानों पर पंचायतन देवालय प्राप्त हुए हैं, इस बात की पुष्टि करते हैं।
इन विभिन्न सम्प्रदायों में धर्म के नाम पर कोई विवाद नहीं होता, परन्तु मुसलमानों के राजस्थान में प्रवेश करते ही यहाँ के धार्मिक वातावरण में हलचल मच गई। मुसलमानों ने अजमेर को अपना केन्द्र
बनाया और उसके बाद राजस्थान के अन्य भागों में फैलना शुरु कर दिया। उन्होंने हिन्दू मंदिरों को गिरा दिया और हिन्दुओं को बलपूर्वक इस्लाम स्वीकार करवाया। मंदिरों में प्रतिष्ठित मूर्तियों को खण्डित कर हिन्दुओं की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाई। इस प्रकार के संक्रमण काल में राजस्थान में भी कई सन्तों का आविर्भाव हुआ। उन्होंने अपने धार्मिक विचारों के माध्यम से हिन्दू और मुसलमानों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। रुढिवादी विचारों के स्थान पर उन्होंने हृदय की शुद्धि व ईश्वर की भक्ति पर अधिक बल दिया। उन्होंने सगुण तथा निर्गुण भक्ति में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। धार्मिक क्षेत्र में इस प्रकार के परिवर्तनों के समावेश को धार्मिक आन्दोलन की संज्ञा दी जाती है।
उत्तर भारत में इस आन्दोलन का श्रेय रामानंद को एवं दक्षिण भारत में रामानुज को दिया जाता है। कबीर, चैतन्य तथा नानक रामानंद के सहयोगी माने जाते हैं। राजस्थान में भी सन्तों ने ही इस आन्दोलन को प्रारम्भ करने का प्रयास किया। पाँच सन्तों - पाबू जी राठौड़, रामदेव जी तंवर, हड़बूजी सांखला, मेहाजी मांगलिया और गोगाजी चौहान ने इस आन्दोलन को प्रबल बनाने का प्रयास किया। इनके अतिरिक्त अन्य सन्तों में मीरा, दादू, चरणदास एवं रामचरण आदि के नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं।


राजस्थान में धार्मिक आन्दोलन के कारण


भक्ति आन्दोलन की प्रबलता
मध्यकालीन भारत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना भक्ति आन्दोलन का प्रबल होना था। कुछ विद्वानों का मानना है कि भक्ति आन्दोलन इस्लाम की देन था, किन्तु दकिंक्षण भारत में यह आन्दोलन छठी शताब्दी से नवीं शताब्दी के बीच प्रारम्भ हो गया था। भक्ति का प्रारम्भ ही दक्षिण भारत से माना जाता है, और यहाँ के आलावार सन्तों ने इस आन्दोलन को प्रारम्भ किया था। बाद में रामानुज ने इस आन्दोलन को दार्शनिक रुप प्रदान किया। अत: यह धारणा मि है कि भक्ति आन्दोलन इस्लान की देन है। चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में उत्तर भारत में इस आन्दोलन को प्रबल बनाने का श्रेय रामानंद को जाता है। रामानंद के १२ शिष्य थे। वे अपने शिष्यों के साथ अपने मत का प्रचार करने के लिए उत्तरी भारत का भ्रमण करने लगे। उनके इस प्रचार का राजस्थान पर भी प्रभाव किया। उनके शिष्यों में कबीर प्रमुख थे। कबीर ने अपने विचारों से राजस्थान को भी प्रभावित किया। इसके फलस्वरुप राजस्थान में भी कई धर्म प्रचारकों का आविर्भाव हुआ। उन्होंने भी भारत के अन्य सन्तों की भाँति परम्परागत धर्म में व्याप्त दोषों को दूर करने का हर संभव प्रयास किया। परिणामस्वरुप राजस्थान में भी धर्म सुधार आन्दोलन प्रारम्भ हुआ।

राजस्थान में इस्लाम का प्रवेश
ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी में मुसलमानों ने राजस्थान पर निरन्तर आक्रमण किया। उन्होंने न केवल भारत का धन लूटा, बल्कि इस्लाम धर्म का प्रचार भी किया। उनका प्रमुख उद्देश्य भारत में अपनी सत्ता स्थापित करके यहाँ की सम्पत्ति को लूटना एवं इस्लाम धर्म का प्रचार करना था। इसलिए मुसलमानों ने सत्ता में आते ही हिन्दू मंदिरों को नष्ट करना एवं हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाना प्रारम्भ कर दिया। मुसलमानों ने राजस्थान में अजमेर को अपना केन्द्र बनाया। यहाँ से ही उन्होंने जालौर, नागौर, चित्तौड़ एवं मांडल की ओर प्रस्थान किया था। वहाँ भी उन्होंने मंदिरों को गिराना एवं मूर्तियों को नष्ट करना जारी रखा। मुसलमानों के धार्मिक अत्याचारों ने हिन्दुओं को अपनी धार्मिक आस्था से डिगा दिया। जब ईश्वर ने उनकी रक्षा नहीं की, तो ऐसी स्थिती में वे निराशा के सागर में निमग्न हो गये। ऐसे वातावरण में धर्म सुधारकों ने धर्म में व्याप्त बुराईयों को दूर किया और निराश हिन्दुओं के दिल में अपने धर्म के प्रति आस्था का पुन: संचार किया।

हिन्दुओं तथा मुसलमानों में समन्वयात्मक भावना का उदय
मुसलमानों ने प्रारम्भ में आक्रमणकारी के रुप में धर्म के नाम पर अत्यधिक अत्याचार किए। अत: हिन्दुओं में उनके प्रति रोष एवं आक्रोश की भावना उत्पन्न होना स्वाभाविक था, परन्तु जब मुसलमानों को यहाँ रहते हुए काफी समय व्यतीत हुआ, तो उनका धार्मिक जोश भी ठंडा पड़ गया था। दोनों सम्प्रदायों में विचारों का आदान- प्रदान होने लगा और दोनों ने एक दूसरे को समझने का प्रयत्न किया।
राजस्थान के शासकों ने भी मुस्लिम धर्माधिकारियों को सम्मानित करना प्रारम्भ कर दिया। महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने अजमेर की दरगाह को चार गाँव जागीर के रुप में प्रदान किये थे। मारवाड़ नरेश अजीतसिंह ने भी दरगाह के खर्चे के लिए कुछ अनुदान की राशि निश्चित कर दी थी। इस्लाम के सरल एवं सादगीपूर्ण विचारों ने हिन्दू धर्म को भी प्रभावित किया। इसके परिणामस्वरुप हिन्दू धर्म के कई समाज सुधारकों ने जाति - पांति, ऊँच - नीच एवं छुआछूत के भेदभावों का विरोध किया। इस प्रकार की विचारधारा से राजस्थान में धार्मिक आन्दोलन की पृष्टभूमि तैयार हुई।

सूफी मत के संतों का प्रभाव
सूफी मत सुन्नी मत से अधिक उदार तथा सरल है। सूफी सन्तों ने प्यार एवं मधुर वाणी के माध्यम से अपने विचार हिन्दुओं तक पहुँचाए। वे धार्मिक आडम्बरों में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने अल्लाह तक अपनी आवाज पहुँचाने के लिए संगीत (कव्वाली) का सहारा लिया। हिन्दू सन्त सूफी सन्तों के विचार से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने भी धर्म के बाहरी आडम्बरों की आलोचना करके कीर्तन पर अधिक जोर देना प्रारम्भ कर दिया। सूफी सन्तों तथा मुस्लिम दरवेशों ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सामंजस्य उत्पन्न करने का प्रयत्न किया।

नवीन साहित्यिक ग्रन्थों का सृजन
सत्रहवीं शताब्दी में सृजित नवीन साहित्यिक ग्रन्थों ने धार्मिक आन्दोलन को बल प्रदान किया। हरि बोल चिन्तामणि व विप्रबोध मानक साहित्यकारों ने अपने साहित्यिक ग्रन्थों के माध्यम से हृदय की शुद्धि पर विशेष बल दिया। विप्रबोध का मानना था कि हरि सर्वोपरि है और उसे प्रार्थना के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। वह पंडितों एवं शेखों का विरोधी था। उसका मानना था कि ये लोग धर्म को मि आडम्बरों से ही ग्रसित करते हैं।"पश्चिमाद्रिस्तोत्र '' नामक ग्रन्थ में राम, रहीम, गोरख, पीर व अल्लाह को एक ही शक्ति के विभिन्न नाम बताये गये हैं। इन साहित्यिक ग्रन्थों की रचना का परिणाम यह हुआ कि राजस्थान के लोगों के धार्मिक विचार उदार हो गये। अब हिन्दुओं ने परम्परागत धार्मिक विचारों के दायरे से अपने को मुक्त कर दिया और नवीन उदार धार्मिक मान्यताओं को महत्व देना प्रारम्भ कर दिया।

राजस्थान के सिद्ध पुरुषों का धर्म आन्दोलन में सहयोग
राजस्थान के इस धार्मिक आन्दोलन की प्रवृत्ति हमें यहाँ के सिद्ध पुरुषों के चिंतन में भी स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर होती है। ऐसे व्यक्ति जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन त्याग तथा बलिदान के साथ समाज सेवा एवं धर्म प्रचार में व्यतीत कर दिया था, उन्हें सिद्ध पुरुष कहा जाता है। ऐसे सिद्ध पुरुषों को अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त थीं, अत: जनता ने उन्हें देवत्व की भाँति पूजना शुरु कर दिया। ऐसे सिद्ध पुरुषों में गोगाजी, पाबूजी, तेजाजी एवं मल्लिनाथ आदि के नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। गोगाजी ने यवनों के शिकंजे से गायों को छुड़वाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया था। उनकी स्मृति में भाद्रपद की कृष्णा नवमी को गोगा नवमी का मेला भरता है।
इसी प्रकार तेजाजी ने जाटों की गायों को मुक्त करवाने में अपने प्राण दांव पर लगा दिये थे। वे खड़नवाल गाँव के निवासी थे। भादो शुक्ला दशमी को तेजाजी का पूजन होता है। तेजाजी का राजस्थान के जाटों में महत्वपूर्ण स्थान है। अन्य लोक देवों में पाबूजी, मल्लिनाथ एवं देवजी के नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने अपने आत्म - बलिदान तथा सदाचारी जीवन से अमरत्व प्राप्त किया था। उन्होंने अपने धार्मिक विचारों से जनसाधारण को सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया और जनसेवा के कारण निष्ठा अर्जित की। उन्होंने जनसाधारण के हृदय में हिन्दू धर्म के प्रति लुप्त विश्वास को पुन: जागृत किया। इस प्रकार लोकदेवों ने अपने सद्कार्यों एवं प्रवचनों से जन - साधारण में नवचेतना जागृत की, लोगों की जात - पांत में आस्था कम हो गई। अत: उनका इस्लाम के प्रति आकर्षण दिन - प्रतिदिन कम होता गया। इस प्रकार इन लोक देवताओं ने धर्म सुधार की पृष्ठभूमि तैयार कर दी।

धर्म तथा समाज में व्याप्त आडम्बर एवं कुप्रथायें
हिन्दू समाज तथा धर्म में कुरीतियों, आडम्बरों एवं पाखण्डों का बोलबाला था, जिसके कारण जनसाधारण अन्धविश्वास का शिकार बना हुआ था। इस समय हिन्दू समाज अनेक जातियों एवं उपजातियों में विभक्त हो चुका था एवं कई नयी जातियाँ भी बन चुकी थीं। इस समय निम्न जातियों की दशा बहुत शोचनीय थी। इनकी बस्तियाँ गाँव के बाहर होती थीं। स्वर्ण जाति के लोग इनके हाथ का छुआ पानी नहीं पीते थे। परिणामस्वरुप निम्न जातियों के लोग इस्लाम की ओर आकर्षित हुए। इस स्थिति से बचने के लिए एकमात्र उपाय यही था कि समाज में व्याप्त दोषों को दूर किया जाए।
डॉ० पेमाराम ने लिखा है, "इन सन्तों के द्वारा इस नवजागरण में आत्मसम्मान तथा सर्वसाधारण सन्त साधना जैसे रहस्यमय एवं गूढ़ सिद्धांतों की व्याख्या बोलचाल की भाषा में सर्वसाधारण के लिए की जाने लगी। जो अभी तक ब्राह्मण एवं उच्च वर्ग तक ही सीमित थी। अब उन गूढ़ एवं रहस्यमय सिद्धांतों को अनपढ़ व साधारँ ज्ञान वाले व्यक्ति समझने लगे, जिससे ये पंथ लोकप्रिय हुए।"
डॉ० गोपीनाथ शर्मा के अनुसार, "यह युग न केवल राजस्थान की संस्कृति का, बल्कि भारत की संस्कृति का एक उज्जवल युग है। हमारी स्मृति में धार्मिक जीवन का कोई ऐसा उज्जवल पक्ष इसके पूर्व इतना नैसर्गिक और फलद नहीं हो सका।"

राजस्थान में राजा के देवत्व की अवधारणा

राजस्थान के अभिलेखों, मुद्राओं और साहित्यिक ग्रन्थों से इस भू-भाग के प्राचीन राज्यों के प्रकाशन की जानकारी मिलती है। प्रशासनिक दृष्टि से राजा को राज्य का सर्वोच्च अधिकारी मानने की अवधारणा का विकास भारत में प्राचीन काल में ही हो चुका था। कौटिल्य के अर्थशास्र में राजा को संक्षिप्त राज्य कहकर पुकारा गया है।
राजा वैदिक काल से ही शक्ति सम्पन्न माना जाता रहा है यद्यपि उस समय उसके दैविक स्वरुप का विकास नहीं हो पाया था।
अथर्ववेद में अवश्य ही राजा पुरुकुत्स को ""अर्द्धदेव'' कहा गया है राजा के देवत्व की भावना का विकास ब्राह्मण काल में हुआ है। उन दिनों यह मान्यता थी कि अभिषेक के समय राजा के शरीर में अग्नि, सविता और बृहस्पति आदि देवता प्रवेश करते हैं। समाज में यह भावना बी बलवती थी कि अश्वमेघ यज्ञ करने वाले राजा को मृत्युपरान्त देव पद मिलता है। उस समय तो राजा को प्रजापति का प्रत्यक्ष रुप मानने लगे थे।
कुषाण काल में राजा स्वयं ""देवपुत्र'' होने का दावा करने लगे। उन्होंने मुद्राओं पर स्वयं को दैवीज्योति से आवृत बादलों से अवतरित होते हुए अंकित करवाया। कुषाणों ने अपने पूर्वजों की प्रतिमाएं दैवकुल में स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की। स्मृतियों और पुराणों में राजा के देवत्व को स्वीकार किया गया है। मनु के अनुसार राजा के नर रुप में देवता है। ब्रह्मा ने आठों दिशाओं के दिक्पालों के शरीर का अंश लेकर उसके शरीर का निर्माण किया। विष्णु पुराण और भागवत पुराण के अनुसार राजा के शरीर में अनेक देवता निवास करते हैं। विष्णु पुराण में कहा गया है कि राजा वेन के शरीर पर विष्णु के नाना लाञ्छन विद्यमान थे।
राजा के देवत्व की परम्परा को बोद्धों ने भी स्वीकार किया औऱ उसे "सम्मुति देव' कहकर पुकारा। संस्कृत नाटककारों नें भी राजा हेतु "देव' शब्द का प्रयोग किया है। भारत में अवतारवाद की कल्पना के जन्म के बाद राजा को पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार माना जाने लगा। "महाभारत' स्मृतियों और पुराणों में राजा और देवताओं के कार्यों में समानता का चित्रण मिलता है। यद्यपि अनेक ग्रंथकारों ने राजा की तुलना देवताओं से की है, किन्तु उन्होंने यह कहीं भी नहीं लिका कि राजा स्वंय देवता है। मनु ने राजा के देवत्व को स्वीकार करते हुए भी मत प्रकट किया कि धर्म से विचलित होने पर राजा का नाश हो जाता है।
राजा के देवत्व की परम्परा गुप्त काल में भी जारी रही। एकन्द गुप्त के भितरी-लेख में द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को स्वयं या प्रतिरथ (साक्षात अप्रतिरथ अर्थात् विष्णु) कहा गया है। प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की तुलना विष्णु से की गई है। राजा के देवत्व की कल्पना राजस्थान के साहित्यिक ग्रंथों और अभिलेकों में स्पष्टत: दृष्टिगोचर होती है। उद्योतन सूरि रचित "कवलयमाला कहा' में राजा हेतु "महाराजाधिराज' "परमेश्वर' और "मकरध्वज' जैसी उपाधियों का उपयोग किया गया है। जबकि "समराइच्च कहा' में हरिभद्र सूरि ने राजा हेतु केवल "देव' उपाधि का उपयोग ही उचित समझा।
प्रतिहार शासकों ने स्वयं को राजा, भूप, नृप और महाराज के रुप में लोकप्रिय बनाया। प्रतिहार द्वितीय नागभट भोज और महेन्द्रपाल ने ""महाराजाधिराज'' जैसे विरुद धारण किये। किन्तु उनके सामन्तों ने उन्हें ""परम भट्टारक'' और ""परमेश्वर'' आदि उपाधियों से भी सम्बोधित किया। नागभ के सामन्त बप्पक के पुत्र जज्जक की पुत्री जयावती के बुचकला अभिलेख में वलराज को "महाराजाधिराज' और "परमेश्वर' कहा गया है। उसके पुत्र नागभट को भी इसी उपाधि से विभूषित किया गया है। बाहड़देव के पाली से प्राप्त सोमनाथ मन्दिर लेख में कुमारपाल चौलुक्य को "परमभट्टारक महाराजाधिराज' विरुद दिया गया है। चौलुक्य द्वितीय भीमदेव के सामन्त चाहमान, मदल ब्रह्मदेवे के कीराडू-लेख में भीमदेव के हेतु ""महाराजाधिराज परमेश्वर और परम भट्टारक'' सम्बोधन मिलता है। इसी नरेश के एक गुहिलवंशीय सामन्त अमृतपाल देव के वीरपुर-दानपत्र में भी उसके लिए परमेश्वर परम भट्टारक उपाधि निर्देशित है।
वाक्पति के काल से परमार शासक परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर उपाधि धारण करने लगे जबकि इसके पूर्व वे प्राय: ""नृप'' और ""भूप'' जैसी उपाधियां ही धारण करते थे। गुहिल और चाहमान शासक भी ""परमेश्वर'' और ""राजेन्द्र'' जैसे विरुदों से विख्यात थे। प्रतिहार प्रथम नागमर को अभिलेखों में साक्षात नारायण तथा भोज एवं विनायकपाल को आदि वराह और प्रथम महिपाल को कार्तिकेय कहा गया। प्रतिहार भोज का भी राजस्थान के विशाल भू-खण्ड पर अधिकार था। अभिलेखों में उसे "आदिवराह' कहा गया है। मुद्राओं पर उत्कीर्ण उसकी "वराह' शिरोधारी मनुष्याकृति कदाचित् इस बात की द्योतक है कि वह स्वयं को विष्णु का अवतार मानता था। विनायकपाल की श्रीमद् आदिवराह मुद्राओं का उल्लेख कामा के नवीं शती ईसवीं के लेख और ठक्कुर फैसकृत ""दृव्य परीक्षा'' ग्रन्थ में मिलता है।
राजा के देवत्व की अवधारणा का सर्वाधिक प्रभाव चौहान राजाओं पर पड़ा। तृतीय पृथ्वीराज चाहमान को अभिलेखों में ""परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर'' और ""पृथ्वीराज विजय'' में ""भारतेश्वर'' कहा गया है। तृतीय ""पृथ्वीराज'' को उसकी समारिक उपलब्धियों के परिमाणस्वरुप राम और विष्णु के दस अवतारों के समान बतलाया गया है। शिवालिक अभिलेख में चतुर्थ विग्रहराज की तुलना विष्णु से की गई है। जबकि ""पृथ्वीराज विजय'' में उसे ""मधुसंहारक'' (विष्णु का एक नाम) कहा गया है।
राजस्थान के अभिलेखों में राजा का देवत्व अनेक प्रकार से प्रदर्शित किया गया है। विश्वकर्मा के गंगाधार-लेख (संवत् ४८०) में उसे बृहस्पति के समान बुद्धिमान, सम्पूर्ण कलाओं से युक्त चन्द्रमा के समान मुखवाला, राम और भागीरथ से तुलनीय और देवताओं के स्वामी (इन्द्र) को अपने पराक्रम से जीतने वाला कहा गया है।
झालारा पाटन शिव मंदिर लेख (संवत् ७४६) में कहा गया है कि अन्धकासुर के नाशक शिव की शंका इस राज में होती थी।
चाटसू अभिलेख (वि.सं. ८७०) के अनुसार कटंकी से रहित राम के समान अत्यन्त शूर-चतुर भूर्तृप गुहिल वंश में हुआ।
डबोक शिलालेख (वि.सं. ९००-१०००) में कक्क के किसी पुत्र (नाम अज्ञात) के लिए कहा गया है, वह श्रीमन कक्क का पुत्र था जो पृथ्वी पर लोकपालों के समान था।
पोकरण - अभिलेख (वि.सं. १०७०) में पुण्य पुष्प की तुलना कामदेव से की गई है।
हर्षनाथ लेख (वि.सं. १०३०) में चतुर्थ विग्रहराज को इन्द्र के समान पराक्रमी कहा गया है। हस्तिमाता मंदिर शिलालेख (वि.सं. १०५७) में शुचि वर्मा के लिए कहा गया है कि शत्रुओं के नगर जलाने में भगवान् शंकर के तुल्य वह राजा मनोहर आकृति वाला साक्षात कामदेव था।
जालौर के परमार राजा धारावर्ष की तुलना इन्द्र से की गई है। वसन्तगढ़ लाण बावड़ा प्रशस्ति (वि.सं. १०९९) में विग्रराज के लिए कहा गया है कि वह अपने सामर्थ्य से पृथ्वी को धारण करने वाला, बलशाली, श्रेष्ठ मनुष्यों में उत्तम और विष्णु के समान थे। जालौर लेख (वि.सं. ११७४) के अनुसार परमार राजा विज्जराज भगवान शंकर के पुत्र स्कंद के समान और अपने निस्चय के कारण भगवान कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के तुल्य था।
राजस्थान के राजा के देवत्व की चरम सीमा के देवतुल्य परम्परा के रुप में दृष्टिगोचर होती है। प्राचीन काल में क्षत्रिय राज-परिवारों में राजा की मृत्युपरान्त उसकी प्रतिमा को देवकुल में स्थापित कर उसकी पूजा करने की परम्परा थी।
भास के ""प्रतिमा नाटक'' में देवकुल परम्परा का भारतीय परिवेश में विवरण प्रस्तुत किया गया है। भास के अनुसार जब भरत अपने ननिहाल से लौट रहा था तो मार्ग में स्थित देवकुल में उसने दिलीप, अज आदि राजाओं की प्रतिमाओं के साथ दशरथ की भी मूर्ति देखी थी। इससे उसे अपने पिता के निधन की जानकारी मिली। इस उदाहरण से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में भारत में राज परिवारों में देवकुल निर्माण की परम्परा थी, जो भास के पहले से चली आ रही थी।
चाहमान शासक सोमेश्वर ने नवनिर्मित वैद्यनाथ मंदिर के सम्मुख अपने पिता एवं स्वयं अपनी घोड़े पर सवार प्रतिमाएं स्थापित करवायी थी। अजमेर के चौहानों के लिए यह मन्दिर देवकुल के समान था। देवकुल की इन प्रतिमाओं को परिवारों के महत्वपूर्ण अवसरों पर पूजा जाता था। क्षत्रियों में विवाहों परान्त वर-वधु को देवकुल ले जाया जाता था। वहां परिवार के देवस्वरुप पूर्वजों की पूजा अर्चना कर उनके प्रति श्रद्धा प्रकट की जाती थी।
एक चौहान लेख में लूविंग देव द्वारा स्वयं अपनी तथा रानी की मूर्तियां बनवाकर मंदिर में रखवाये जाने का उल्लेख मिलता है।
उपर्युक्त साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि राजस्थान में राजा के देवत्व के परम्परा का विकास प्राचीन काल में ही हो चुका था। इस प्रकार राजा के देवत्व की परम्परा शासक को अपने कर्तव्य के प्रति जागरुक रखने में महत्वपूर्ण घटक सिद्ध हुई।